कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
मैंने मन-ही-मन सोचा कि
यह आपत्ति कहाँ से आयी! वह भी रात बीत जाने पर!
मैंने कहा- ” भले आदमी! तुमको इतने सबेरे भूख लग गयी?”
उसकी
दाढ़ी और मूँछों के भीतर छिपी हुई दाँतों की पँक्ति रगड़ उठी। वह हँसी थी
या थी किसी कोने की मर्मान्तक पीड़ा की अभिव्यक्ति, कह नहीं सकता। वह कहने
लगा-” व्यवहार-कुशल मनुष्य, संसार के भाग्य से उसकी रक्षा के लिए, बहुत
थोड़े-से उत्पन्न होते हैं। वे भूखे पर संदेह करते हैं। एक पैसा देने के
साथ नौकर से कह देते हैं, देखो इसे चना दिला देना। वह समझते हैं, एक पैसे
की मलाई से पेट न भरेगा। तुम ऐसे ही व्यवहार-कुशल मनुष्य हो। जानते हो कि
भूखे को कब भूख लगनी चाहिए। जब तुम्हारी मनुष्यता स्वाँग बनाती है, तो
अपने पशु पर देवता की खाल चढ़ा देती है, और स्वयं दूर खड़ी हो जाती है।”
मैंने सोचा कि यह दार्शनिक भिखमंगा है। और कहा-” अच्छा, बाहर बैठो।”
बहुत
शीघ्रता करने पर भी नौकर के उठने और उसके लिए भोजन बनाने में घण्टों लग
गये। जब मैं नहा-धोकर पूजा-पाठ से निवृत्त होकर लौटा, तो वह मनुष्य एकान्त
मन से अपने खाने पर जुटा हुआ था। अब मैं उसकी प्रतीक्षा करने लगा। वह भोजन
समाप्त करके जब मेरे पास आया, तो मैंने पूछा- ” तुम यहाँ क्या कर रहे थे?”
उसने स्थिर दृष्टि से एक
बार मेरी ओर देखकर कहा- ” बस, इतना ही पूछिएगा या
और भी कुछ?”
मुझे हँसी आ गयी। मैंने
कहा-” मुझे अभी दो घण्टे का अवसर है। तुम जो कुछ
कहना चाहो, कहो।”
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