कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
वह कहने लगा-
“मेरे
जीवन में उस दिन अनुभूतिमयी सरसता का सञ्चार हुआ, मेरी छाती में कुसुमाकर
की वनस्थली अंकुरित, पल्लवित, कुसुमित होकर सौरभ का प्रसार करने लगी।
ब्याह के निमन्त्रण में मैंने देखा उसे, जिसे देखने के लिए ही मेरा जन्म
हुआ था। वह थी मंगला की यौवनमयी ऊषा। सारा संसार उन कपोलों की अरुणिमा की
गुलाबी छटा के नीचे मधुर विश्राम करने लगा। वह मादकता विलक्षण थी। मंगला
के अंग-कुसुम से मकरन्द छलका पड़ता था। मेरी धवल आँखे उसे देखकर ही गुलाबी
होने लगीं।
ब्याह की भीड़भाड़ में इस
ओर ध्यान देने की किसको
आवश्यकता थी, किन्तु हम दोनों को भी दूसरी ओर देखने का अवकाश नहीं था।
सामना हुआ और एक घूँट। आँखे चढ़ जाती थीं। अधर मुस्कराकर खिल जाते और
हृदय-पिण्ड पारद के समान, वसन्त-कालीन चल-दल-किसलय की तरह काँप उठता।
देखते-ही-देखते
उत्सव समाप्त हो गया। सब लोग अपने-अपने घर चलने की तैयारी करने लगे;
परन्तु मेरा पैर तो उठता ही न था। मैं अपनी गठरी जितनी ही बाँधता, वह खुल
जाती। मालूम होता था कि कुछ छूट गया है। मंगला ने कहा- ” मुरली, तुम भी
जाते हो?”
“जाऊँगा ही-तो भी तुम
जैसा कहो ।”
“अच्छा, तो फिर कितने
दिनों में आओगे?”
“यह तो भाग्य जाने!”
“अच्छी बात है” - वह
जाड़े की रात के समान ठण्डे स्वर में बोली।
मेरे
मन को ठेस लगी। मैंने भी सोचा कि फिर यहाँ क्यों ठहरूँ? चल देने का निश्चय
किया। फिर भी रात तो बितानी ही पड़ी। जाते हुए अतिथि को थोड़ा और ठहरने के
लिए कहने से कोई भी चतुर गृहस्थ नहीं चूकता। मंगला की माँ ने कहा और मैं
रात भर ठहर गया; पर जागकर रात बीती। मंगला ने चलने के समय कहा-” अच्छा
तो-” इसके बाद नमस्कार के लिए दोनों सुन्दर हाथ जुड़ गये। चिढक़र मन-ही-मन
मैंने कहा- यही अच्छा है, तो बुरा ही क्या है? मैं चल पड़ा। कहाँ-घर नहीं!
कहीं और!-मेरी कोई खोज लेनेवाला न था।
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