कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
मैं चला जा रहा था। कहाँ
जाने के लिए, यह न बताऊँगा। वहाँ पहुँचने पर सन्ध्या हो गयी। चारों ओर
वनस्थली साँय-साँय करने लगी। थका भी था, रात को पाला पड़ने की सम्भावना
थी। किस छाया में बैठता? सोच-विचारकर मैं सूखी झलासियों से झोपड़ी बनाने
लगा। लतरों को काटकर उस पर छाजन हुई। रात का बहुत-सा अंश बीत चुका था।
परिश्रम की तुलना में विश्राम कहाँ मिला! प्रभात होने पर आगे बढऩे की
इच्छा न हुई। झोपड़ी की अधूरी रचना ने मुझे रोक लिया। जंगल तो था ही।
लकड़ियों की कमी न थी। पास ही नाले की मिट्टी भी चिकनी थी। आगे बढक़र
नदी-तट से मुझे नाला ही अच्छा लगा। दूसरे दिन से झोपड़ी उजाड़कर अच्छी-सी
कोठरी बनाने की धुन लगी। अहेर से पेट भरता और घर बनाता। कुछ ही दिनों में
वह बन गया। जब घर बन चुका, तो मेरा मन उचटने लगा। घर की ममता और उसके
प्रति छिपा हुआ अविश्वास दोनों का युद्ध मन में हुआ। मैं जाने की बात
सोचता, फिर ममता कहती कि विश्राम करो। अपना परिश्रम था, छोड़ न सका। इसका
और भी कारण था। समीप ही सफेद चट्टानों पर जलधारा के लहरीले प्रवाह में
कितना संगीत था! चाँदनी में वह कितना सुन्दर हो जाता है! जैसे इस पृथ्वी
का छाया-पथ। मेरी उस झोपड़ी से उसका सब रूप दिखाई पड़ता था न! मैं उसे
देखकर सन्तोष का जीवन बिताने लगा। वह मेरे जीवन के सब रहस्यों की प्रतिमा
थी। कभी उसे मैं आँसू की धारा समझता, जिसे निराश प्रेमी अपने आराध्य की
कठोर छाती पर व्यर्थ ढुलकाता हो। कभी उसे अपने जीवन की तरह निर्मम संसार
की कठोरता पर छटपटाते हुए देखता। दूसरे का दु:ख देखकर मनुष्य को सन्तोष
होता ही है। मैं भी वहीं पड़ा जीवन बिताने लगा।
कभी सोचता कि मैं
क्यों पागल हो गया! उस स्त्री के सौन्दर्य ने क्यों अपना प्रभाव मेरे हृदय
पर जमा लिया? विधवा मंगला, वह गरल है या अमृत? अमृत है, तो उसमें इतनी
ज्वाला क्यों है, ज्वाला है तो मैं जल क्यों नहीं गया? यौवन का विनोद!
सौन्दर्य की भ्रान्ति! वह क्या है? मेरा यही स्वाध्याय हो गया।
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