कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
मंगला हताश होकर बोली-”
क्या करूँ?”
मैंने कहा- ”इसी में जो
कुछ अँटे-बँटे, वह खा-पीकर आज आप लोग विश्राम
कीजिए न!”
पुरुष निकल आया। उसने
सिकी हुई बाटियाँ और मांस के टुकड़ों को देखकर कहा-
”तब और चाहिए क्या? मैं तो आपको धन्यवाद ही दूँगा।”
मंगला
जैसे व्यथित होकर अपने साथी को देखने लगी; उसकी यह बात उसे अच्छी न लगी;
किन्तु अब वह द्विविधा में पड़ गयी। वह चुपचाप खड़ी रही। पुरुष ने झिड़ककर
कहा- ”तो आओ मंगला! मेरा अंग-अंग टूट रहा है। देखो तो बोतली में आज भर के
लिए तो बची है?”
जलती हुई आग के धुँधले
प्रकाश में वन-भोज का
प्रसंग छिड़ा। सभी बातों पर मुझसे पूछा गया; पर शराब के लिए नहीं। मंगला
को भी थोड़ी-सी मिली। मैं आश्चर्य से देख रहा था ... मंगला का वह प्रगल्भ
आचरण और पुरुष का निश्चिन्त शासन। दासी की तरह वह प्रत्येक बात मान लेने
के लिए प्रस्तुत थी! और मैं तो जैसे किसी अद्भुत स्थिति में अपनेपन को
भूल चुका था। क्रोध, क्षोभ और डाह सब जैसे मित्र बनने लगे थे। मन में एक
विनीत प्यार नहीं; आज्ञाकारिता-सी जग गयी थी।
पुरुष ने डटकर भोजन
किया। तब एक बार मेरी ओर देखकर डकार ली। वही मानो मेरे लिए धन्यवाद था।
मैं कुढ़ता हुआ भी वहीं साखू के नीचे आसन लगाने की बात सोचने लगा और पुरुष
के साथ मंगला गहरी अँधियारी होने के पहले ही झोपड़ी में चली गयी। मैं
बुझती हुई आग को सुलगाने लगा। मन-ही-मन सोच रहा था, ‘कल ही इन लोगों को
यहाँ से चले जाना चाहिए। नहीं तो-‘फिर नींद आ चली। रजनी की निस्तब्धता,
टकराती हुई लहरों का कलनाद, विस्मृति में गीत की तरह कानों में गूँजने
लगा।
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