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कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
दूसरे दिन मुझमें कोई
कटुता का नाम नहीं-झिड़कने का साहस नहीं। आज्ञाकारी
दास के समान मैं सविनय उनके सामने खड़ा हुआ।
“महाशय!
कई मील तो जाना पड़ेगा, परन्तु थोड़ा-सा कष्ट कीजिए न। कुछ सामान ख़रीद
लाइए आज-” मंगला को अधिक कहने का अवसर न देकर मैं उसके हाथ से रुपया लेकर
चल पड़ा। मुझे नौकर बनने में सुख प्रतीत हुआ और लीजिए, मैं उसी दिन से
उनके आज्ञाकारी भृत्य की तरह अहेर कर लाता। मछली मारता। एक नाव पर जाकर
दूर बाज़ार से आवश्यक सामग्री ख़रीद लाता। हाँ, उस पुरुष को मदिरा नित्य
चाहिए। मैं उसका भी प्रबन्ध करता और यह सब प्रसन्नता के साथ। मनुष्य को
जीवन में कुछ-न-कुछ काम करना चाहिए। वह मुझे मिल गया था। मैंने
देखते-देखते एक छोटा-सा छप्पर अलग डाल दिया। प्याज-मेवा, जंगली शहद और
फल-फूल सब जुटाता रहता। यह मेरा परिवर्तन निर्लिप्त भाव से मेरी आत्मा ने
ग्रहण कर लिया। मंगला की उपासना थी।
कई महीने बीत गये; किन्तु
छविनाथ-यही उस पुरुष का नाम था-को भोजन करके, मदिरा पिये पड़े रहने के
अतिरिक्त कोई काम नहीं। मंगला की गाँठ ख़ाली हो चली। जो दस-बीस रुपये थे
वह सब खर्च हो गये, परन्तु छविनाथ की आनन्द निद्रा टूटी नहीं। वह निरंकुश,
स्वच्छ पान-भोजन में सन्तुष्ट व्यक्ति था। मंगला इधर कई दिनों से घबरायी
हुई दीखती थी; परन्तु मैं चुपचाप अपनी उपासना में निरत था। एक सुन्दर
चाँदनी रात थी। सरदी पड़ने लगी थी। वनस्थली सन्न-सन्न कर रही थी। मैं अपने
छप्पर के नीचे दूर से आने वाली नदी का कलनाद सुन रहा था। मंगला सामने आकर
खड़ी हो गयी। मैं चौंक उठा। उसने कहा- ”मुरली!”
मै चुप रहा।
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