कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
दस बज चुके थे। मैंने
देखा कि उस
निर्मल धूप में सड़क के किनारे एक कपड़े पर छोटे जादूगर का रंगमंच सजा था।
मैं मोटर रोककर उतर पड़ा। वहाँ बिल्ली रूठ रही थी। भालू मनाने चला था।
ब्याह की तैयारी थी, यह सब होते हुए भी जादूगर की वाणी में वह प्रसन्नता
की तरी नहीं थी। जब वह औरों को हँसाने की चेष्टा कर रहा था, तब जैसे स्वयं
काँप जाता था। मानो उसके रोएँ रो रहे थे। मैं आश्चर्य से देख रहा था। खेल
हो जाने पर पैसा बटोरकर उसने भीड़ में मुझे देखा। वह जैसे क्षणभर के लिए
स्फूर्तिमान हो गया। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछा, ”आज तुम्हारा खेल
जमा क्यों नहीं?”
”माँ ने कहा है कि आज
तुरंत चले आना। मेरी घड़ी समीप है।” अविचल भाव से
उसने कहा।
”तब
भी तुम खेल दिखलाने चले आए!” मैंने कुछ क्रोध से कहा। मनुष्य के सुख-दुख
का माप अपना ही साधन तो है। उसके अनुपात से वह तुलना करता है।
उसके मुँह पर वही परिचित
तिरस्कार की रेखा फूट पड़ी।
उसने कहा, ”न क्यों आता?”
और कुछ अधिक कहने में
जैसे वह अपमान का अनुभव कर रहा था।
क्षण
भर में मुझे अपनी भूल मालूम हो गई। उसके झोले को गाड़ी में फेंककर उसे भी
बैठाते हुए मैंने कहा, ”जल्दी चलो।” मोटर वाला मेरे बताए हुए पथ पर चल
पड़ा।
कुछ ही मिनटों में मैं
झोंपड़े के पास पहुँचा। जादूगर
दौड़कर झोंपड़े में माँ-माँ पुकारते हुए घुसा। मैं भी पीछे था, किन्तु
स्त्री के मुँह से, ‘बे…’ निकलकर रह गया। उसके दुर्बल हाथ उठकर गिर गए।
जादूगर उससे लिपटा रो रहा था। मैं स्तब्ध था। उस उज्ज्वल धूप में समग्र
संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नृत्य करने लगा।
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