कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
मैं कुछ बोलना ही चाहता
था कि श्रीमतीजी ने कहा, ”अच्छा, तुम इस रुपए से
क्या करोगे?”
”पहले भरपेट पकौड़ी
खाऊँगा। फिर एक सूती कम्बल लूँगा।”
मेरा
क्रोध अब लौट आया। मैं अपने पर बहुत क्रुद्ध होकर सोचने लगा, ”ओह! कितना
स्वार्थी हूँ मैं। उसके एक रुपया पाने पर मैं ईर्ष्या करने लगा था न!”
वह नमस्कार करके चला गया।
हम लोग लता-कुंज देखने के लिए चले।
उस
छोटे-से बनावटी जंगल में संध्या साँय-साँय करने लगी थी। अस्ताचलगामी सूर्य
की अन्तिम किरण वृक्षों की पत्तियों से विदाई ले रही थी। एक शांत वातावरण
था। हम लोग धीरे-धीरे मोटर से हावड़ा की ओर आ रहे थे।
रह-रहकर
छोटा जादूगर स्मरण होता था। तभी सचमुच वह एक झोपड़ी के पास कम्बल कंधे पर
डाले मिल गया। मैंने मोटर रोककर उससे पूछा, ”तुम यहाँ कहाँ?”
”मेरी
माँ यहीं है न। अब उसे अस्पताल वालों ने निकाल दिया है।” मैं उतर गया। उस
झोंपड़ी में देखा तो एक स्त्री चिथड़ों से लदी हुई काँप रही थी।
छोटे जादूगर ने कम्बल ऊपर
से डालकर उसके शरीर से चिमटते हुए कहा, ”माँ।”
मेरी आंखों में आँसू निकल
पड़े।
बड़े
दिन की छुट्टी बीत चली थी। मुझे अपने आफिस में समय से पहुँचना था। कलकत्ते
से मन ऊब गया था। फिर भी चलते-चलते एक बार उस उद्यान को देखने की इच्छा
हुई। साथ-ही-साथ जादूगर भी दिखाई पड़ जाता, तो और भी… मैं उस दिन अकेले ही
चल पड़ा। जल्द लौट आना था।
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