कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
फिरोज़ा
की आँखों में आँसू भरे थे, तब भी वह जैसे हँस रही थी। सहसा वह पाँच धातु
के टुकड़ों को बलराज के हाथ पर रखकर झाड़ियों में घुस गई। बलराज चुपचाप
अपने हाथ पर के उन चमकीले टुकड़ों को देख रहा था। हाथ कुछ झुक रहा था।
धीरे-धीरे टुकड़े उसके हाथ से खिसक पड़े। वह बैठ गया-सामने एक पुरुष खड़ा
हुआ मुस्करा रहा था।
बलराज!
राजा साहब! - जैसे आँख
खोलते हुए बलराज ने कहा, और उठकर खड़ा हो गया।
मैं सब सुन रहा था। तुम
हिन्दुस्तान चले जाओ। मैं भी तुमको यही सलाह
दूँगा। किन्तु, एक बात है।
वह क्या राजा साहब?
मैं
तुम्हारे दु:ख का अनुभव कर रहा हूँ। जो बातें तुमने अभी फिरोज़ा से कहीं
हैं, उन्हें सुनकर मेरा हृदय विचलित हो उठा है। किन्तु क्या करूँ? मैंने
आकांक्षा का नशा पी लिया है। वही मुझे बेबस किये है। जिस दु:ख से मुनष्य
छाती फाड़कर चिल्लाने लगता हो, सिर पीटने लगता हो, वैसी प्रतिकूल
परिस्थितियों में भी मैं केवल सिर-नीचा कर चुप रहना अच्छा समझता हूँ। क्या
ही अच्छा होता कि जिस सुख में आनन्दातिरेक से मनुष्य उन्मत्त हो जाता है,
उसे भी मुस्करा कर टाल दिया करूँ। सो नहीं होता। एक साधारण स्थिति से मैं
सुल्तान के सलाहकारों के पद तक तो पहुँच गया हूँ। मैं भी हिन्दुस्तान का
ही एक कंगाल था। प्रतिदिन की मर्यादा-वृद्धि, राजकीय विश्वास और उसमें सुख
की अनुभूति ने मेरे जीवन को पहेली बनाकर... जाने दो। मैंने सुल्तान के
दरबार से जितना सीखा है, वही मेरे लिए बहुत है। एक बनावटी गम्भीरता!
छल-पूर्ण विनय! ओह, कितना भीषण है, यह विचार! मैं धीरे-धीरे इतना बन गया
हूँ कि मेरी सहृदयता घूँघट उलटने नहीं पाती। लोगों को मेरी छाती में हृदय
होने का सन्देह हो चला है। फिर मैं तुमसे अपनी सहृदयता क्यों प्रकट करूँ?
तब भी आज तुमने मेरे स्वभाव की धारा का बाँध तोड़ दिया है। आज मैं....।
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