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जयशंकर प्रसाद की कहानियां

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :435
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9810
आईएसबीएन :9781613016114

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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ


मैं जाऊँगी और इरावती को खोज निकालूँगी - राजा साहब! आपके हृदय में इतनी टीस है, आज तक मैं न जानती थी। मुझे यही मालूम था कि अनेक अन्य तुर्क सरदारों के समान आप भी रंग-रलियों में समय बिता रहे हैं, किन्तु बरफ से ढकी हुई चोटियों के नीचे भी ज्वालामुखी होता है।

तो जाओ फिरोज़ा! मुझे बचाने के लिए, उस भयानक आग से, जिससे मेरा हृदय जल उठता है, मेरी रक्षा करो!- कहते हुए राजा तिलक उसी जगह बैठ गये। फिरोज़ा खड़ी थी। धीरे-धीरे राजा के मुख पर एक स्निग्धता आ चली। अब अन्धकार हो चला। गजनी के लहरों पर से शीतल पवन उन झाड़ियों में भरने लगा था। सामने ही राजा साहब का महल था। उसका शुभ्र गुम्बद उस अन्धकार में अभी अपनी उज्ज्वलता से सिर ऊँचा किये था। तिलक ने कहा- फिरोज़ा, जाने के पहले अपना वह गाना सुनाती जाओ।

फिरोज़ा गाने लगी। उसके गीत की ध्वनि थी- मैं जलती हुई दीपशिखा हूँ और तुम हृदय-रञ्जन प्रभात हो! जब तक देखती नहीं, जला करती हूँ और जब तुम्हें देख लेती हूँ, तभी मेरे अस्तित्व का अन्त हो जाता है- मेरे प्रियतम! सन्ध्या की अँधेरी झाड़ियों में गीत की गुञ्जार घूमने लगी।

यदि एक बार उसे फिर देख पाता; पर यह होने का नहीं। निष्ठुर नियति! उसकी पवित्रता पंकिल हो गई होगी। उसकी उज्ज्वलता पर संसार के काले हाथों ने अपनी छाप लगा दी होगी। तब उससे भेंट करके क्या करूँगा? क्या करूँगा? अपने कल्पना के स्वर्ण-मन्दिर का खण्डहर देख कर! -कहते-कहते बलराज ने अपने बलिष्ठ पंजों को पत्थरों से जकड़े हुए मन्दिर के प्राचीर पर दे मारा। वह शब्द एक क्षण में विलीन हो गया। युवक ने आरक्त आँखों से उस विशाल मन्दिर को देखा और वह पागल-सा उठ खड़ा हुआ। परिक्रमा के ऊँचे-ऊँचे खम्भों से धक्के खाता हुआ घूमने लगा।

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