कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
कुछ
नहीं, देखने चला आया हूँ। क़ाज़ीनहीं चाहता कि कन्नौज के पूरब भी कुछ
हाथ-पाँव बढ़ाया जाय। तुम चलो न मेरे साथ। मैं तुम्हारी तलवार की कीमत
जानता हूँ। बहादुर लोग इस तरह नहीं रह सकते। तुम अभी तक हिन्दू बने हो।
पुरानी लकीर पीटने वाले, जगह-जगह झुकने वाले, सबसे दबते हुए, बनते हुए,
कतराकर चलने वाले हिन्दू! क्यों? तुम्हारे पास बहुत-सा कूड़ा-कचड़ा इकट्ठा
हो गया है, उनका पुरानेपन का लोभ तुमको फेंकने नहीं देता? मन में नयापन
तथा दुनिया का उल्लास नहीं आने पाता! इतने दिन हम लोगों के साथ रहे, फिर
भी....।
बलराज सोच रहा था, इरावती
का वह सूखा व्यवहार। सीधा-सीधा
उत्तर! क्रोध से वह अपना ओठ चबाने लगा। नियाल्तगीन बलराज को परख रहा था!
उसने कहा- तुम कहाँ हो? बात क्या है? ऐसा बुझा हुआ मन क्यों?
बलराज
ने प्रकृतिस्थ होकर कहा- कहीं तो नहीं। अब मुझे छुट्टी दो, मैं जाऊँ।
तुम्हारा बनारस देखने का मन है-इस पर तो मुझे विश्वास नहीं होता, तो भी
मुझे इससे क्या? जो चाहो करो। संसार भर में किसी पर दया करने की आवश्यकता
नहीं-लूटो, काटो, मारो। जाओ, नियाल्तगीन।
नियाल्तगीन ने हँसकर कर
कहा- पागल तो नहीं हो। इन थोड़े-से आदमियों से भला क्या हो सकता है। मैं
तो एक बहाने से इधर आया हूँ। फिरोज़ा का बनारसी जरी के कपड़ों का....
क्या फिरोज़ा भी तुम्हारे
साथ है?
चलो,
पड़ाव पर सब आप ही मालूम हो जायगा!- कहकर नियाल्तगीन ने संकेत किया। बलराज
के मन में न-जाने कैसी प्रसन्नता उमड़ी। वह एक तुर्की घोड़े पर सवार हो
गया।
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