कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
|
0 |
जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“छुट्टी!” आश्चर्य से
झल्लाकर मालती ने कहा।
“हाँ, अब मैं काम न
करूँगी!”
“क्यों? तुझे क्या हो गया
बूटी!”
“मेरा
ब्याह इसी महीने में हो जायगा।”- कहते हुए उस स्वतन्त्र युवती ने हँस
दिया। ‘वन की हरिणी अपने आप जाल में फँसने क्यों जा रही है?’ मालती को
आश्चर्य हुआ। उसने चलते-चलते पूछा-”भला, तुझे दूल्हा कहाँ मिल गया?”
“ओहो,
तब आप क्या जानें कि हम लोगों के ब्याह की बात पक्की हुए आठ बरस हो गये?
नीलधर चला गया था, लखनऊ कमाने, और मैंने भी हर साल यहीं नौकरी करके
कुछ-न-कुछ यही पाँच सौ रुपये बचा लिए हैं। अब वह भी एक हज़ार और गहने लेकर
परसों पहुँच जायगा। फिर हम लोग ऊँचे पहाड़ पर अपने गाँव में चले जायँगे।
वहीं हम लोगों का घर बसेगा। खेती कर लूँगी। बाल-बच्चों के लिए भी तो कुछ
चाहिए। फिर चाहिए बुढ़ापे के लिए, जो इन पहाड़ों में कष्टपूर्ण
जीवन-यात्रा के लिए अत्यन्त आवश्यक है।”
वह प्रसन्नता से बातें
करती, उछलती हुई चली जा रही थी और मालती हाँफने लगी थी। मालती ने कहा-”तो
क्यों दौड़ी जा रही है? अभी ही तेरा दूल्हा नहीं मिला जा रहा है।”
|