कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
इस
एकान्त में जब कि पति और पत्नी दोनों ही एक-दूसरे के सामने चौबीसों घण्टे
रहने लगे, तब आवरण का व्यापार अधिक नहीं चल सकता था। बाध्य होकर चन्द्रदेव
को सहायता-तत्पर बनना पड़ा। सहायता में तत्पर होना सामाजिक प्राणी का
जन्म-सिद्ध स्वभाव, सम्भवत: मनुष्यता का पूर्ण निदर्शन है। परन्तु
चन्द्रदेव के पास तो दूसरा उपाय ही नहीं था; इसलिए सहायता का बाह्य
प्रदर्शन धीरे-धीरे वास्तविक होने लगा।
एक दिन मालती चीड़ के
वृक्ष की छाया में बैठी हुई बादलों की दौड़-धूप देख रही थी और मन-ही-मन
विचार कर रही थी चन्द्रदेव के सेवा-अभिनय पर। सहसा उसका जी भर आया। वह
पहाड़ी रंगीन सन्ध्या की तरह किसी मानसिक वेदना से लाल-पीली हो उठी। उसे
अपने ऊपर क्रोध आया। उसी समय चन्द्रदेव ने जो उससे कुछ दूर बैठा था, पुकार
कर कहा- ”मालती, अब चलो न! थक गयी हो न!”
“वहीं सामने तो पहुँचना
है, तुम्हें जल्दी हो तो चले जाओ, ‘बूटी’ को भेज
दो, मैं उसके साथ चली आऊँगी।”
“अच्छा”,
कहकर चन्द्रदेव आज्ञाकारी अनुचर की तरह चला। वह तनिक भी विरोध करके अपने
स्नेह-प्रदर्शन में कमी करना नहीं चाहता था। मालती अविचल बैठी रही। थोड़ी
देर में बूटी आयी; परन्तु मालती को उसके आने में विलम्ब समझ पड़ा। वह इसके
पहले भी पहुँच सकती थी। मालती के लिए पहाड़ी युवती बूटी, परिचारिका के रूप
में रख ली गई थी। यह नाटी-सी गोल-मटोल स्त्री गेंद की तरह उछलती चलती थी।
बात-बात पर हँसती और फिर उस हँसी को छिपाने का प्रयत्न करती रहती। बूटी ने
कहा-
“चलिए, अब तो किरनें डूब
रही हैं, और मुझे भी काम निपटाकर छुट्टी पर जाना
है।”
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