कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
|
0 |
जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
बीजों
का एक बाल लिये कुमारी मधूलिका महाराज के साथ थी। बीज बोते हुए महाराज जब
हाथ बढ़ाते, तब मधूलिका उनके सामने थाल कर देती। यह खेत मधूलिका का था, जो
इस साल महाराज की खेती के लिए चुना गया था; इसलिए बीज देने का सम्मान
मधूलिका ही को मिला। वह कुमारी थी। सुन्दरी थी। कौशेयवसन उसके शरीर पर
इधर-उधर लहराता हुआ स्वयं शोभित हो रहा था। वह कभी उसे सम्हालती और कभी
अपने रूखे अलकों को। कृषक बालिका के शुभ्र भाल पर श्रमकणों की भी कमी न
थी, वे सब बरौनियों में गुँथे जा रहे थे। सम्मान और लज्जा उसके अधरों पर
मन्द मुस्कराहट के साथ सिहर उठते; किन्तु महाराज को बीज देने में उसने
शिथिलता नहीं की। सब लोग महाराज का हल चलाना देख रहे थे- विस्मय से,
कुतूहल से। और अरुण देख रहा था कृषक कुमारी मधूलिका को। अहा कितना भोला
सौन्दर्य! कितनी सरल चितवन!
उत्सव का प्रधान कृत्य
समाप्त हो
गया। महाराज ने मधूलिका के खेत का पुरस्कार दिया, थाल में कुछ स्वर्ण
मुद्राएँ। वह राजकीय अनुग्रह था। मधूलिका ने थाली सिर से लगा ली; किन्तु
साथ उसमें की स्वर्णमुद्राओं को महाराज पर न्योछावर करके बिखेर दिया।
मधूलिका की उस समय की ऊर्जस्वित मूर्ति लोग आश्चर्य से देखने लगे!
महाराज
की भृकुटी भी जरा चढ़ी ही थी कि मधूलिका ने सविनय कहा- देव! यह मेरे
पितृ-पितामहों की भूमि है। इसे बेचना अपराध है; इसलिए मूल्य स्वीकार करना
मेरी सामर्थ्य के बाहर है।
महाराज के बोलने के पहले
ही वृद्ध
मन्त्री ने तीखे स्वर से कहा- अबोध! क्या बक रही है? राजकीय अनुग्रह का
तिरस्कार! तेरी भूमि से चौगुना मूल्य है; फिर कोशल का तो यह सुनिश्चित
राष्ट्रीय नियम है। तू आज से राजकीय रक्षण पाने की अधिकारिणी हुई, इस धन
से अपने को सुखी बना।
|