कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
|
0 |
जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
राजकीय रक्षण की
अधिकारिणी तो सारी प्रजा
है, मन्त्रिवर! .... महाराज को भूमि-समर्पण करने में तो मेरा कोई विरोध न
था और न है; किन्तु मूल्य स्वीकार करना असम्भव है। - मधूलिका उत्तेजित हो
उठी।
महाराज के संकेत करने पर
मन्त्री ने कहा- देव!
वाराणसी-युद्ध के अन्यतम वीर सिंहमित्र की यह एक-मात्र कन्या है। - महाराज
चौंक उठे- सिंहमित्र की कन्या! जिसने मगध के सामने कोशल की लाज रख ली थी,
उसी वीर की मधूलिका कन्या है?
हाँ, देव! -सविनय मन्त्री
ने कहा।
इस उत्सव के पराम्परागत
नियम क्या हैं, मन्त्रिवर?- महाराज ने पूछा।
देव,
नियम तो बहुत साधारण हैं। किसी भी अच्छी भूमि को इस उत्सव के लिए चुनकर
नियमानुसार पुरस्कार-स्वरूप उसका मूल्य दे दिया जाता है। वह भी अत्यन्त
अनुग्रहपूर्वक अर्थात् भू-सम्पत्ति का चौगुना मूल्य उसे मिलता है। उस खेती
को वही व्यक्ति वर्ष भर देखता है। वह राजा का खेत कहा जाता है।
महाराज
को विचार-संघर्ष से विश्राम की अत्यन्त आवश्यकता थी। महाराज चुप रहे।
जयघोष के साथ सभा विसर्जित हुई। सब अपने-अपने शिविरों में चले गये। किन्तु
मधूलिका को उत्सव में फिर किसी ने न देखा। वह अपने खेत की सीमा पर विशाल
मधूक-वृक्ष के चिकने हरे पत्तों की छाया में अनमनी चुपचाप बैठी रही।
रात्रि
का उत्सव अब विश्राम ले रहा था। राजकुमार अरुण उसमें सम्मिलित नहीं
हुआ-अपने विश्राम-भवन में जागरण कर रहा था। आँखों में नींद न थी। प्राची
में जैसी गुलाली खिल रही थी, वह रंग उसकी आँखों में था। सामने देखा तो
मुण्डेर पर कपोती एक पैर पर खड़ी पंख फैलाये अँगड़ाई ले रही थी। अरुण उठ
खड़ा हुआ। द्वार पर सुसज्जित अश्व था, वह देखते-देखते नगर-तोरण पर जा
पहुँचा। रक्षक-गण ऊँघ रहे थे, अश्व के पैरों के शब्द से चौंक उठे।
|