कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
सेवक ने कहा-”अच्छा, जाता
हूँ, परन्तु ऐसा न हो कि तुम यहाँ से चले जाओ;
वह मुझे झूठा समझे।”
“नहीं, मैं यहीं
प्रतीक्षा करूँगा।”
सेवक
चला गया। खजूर के पत्तों से झोपड़ी बनाकर एकान्त-वासी फिर रहने लगा। उसको
बड़ी इच्छा होती कि कोई भूला-भटका पथिक आ जाता, तो खजूर और मीठे जल से
उसका आतिथ्य करके वह एक बार गृहस्थ बन जाता।
परन्तु कठोर
अदृष्ट-लिपि! उसके भाग्य में एकान्तवास ज्वलन्त अक्षरों में लिखा था।
कभी-कभी पवन के झोंके से खजूर के पत्ते खडख़ड़ा जाते, वह चौंक उठता। उसकी
अवस्था पर वह क्षीणकाय स्रोत रोगी के समान हँस देता। चाँदनी में दूर तक
मरुभूमि सादी चित्रपटी-सी दिखाई देती।
माँ भूखी थी। बुढिय़ा
झोपड़ी में दाने ढूँढ रही थी। उस पार नदी के कगारे पर दोनों की धुँधली
प्रतिकृति दिखाई दे रही थी। पश्चिम के क्षितिज में नीचे अस्त होता हुआ
सूर्य बादलों पर अपना रंग फेंक रहा था। बादल नीचे जल पर छाया-दान कर रहा
था। नदी में धूप-छाँह बिछी थी। ‘सेवक’ डोंगी लिये, इधर यात्री की आशा में,
बालू के रूखे तट से लगा बैठा था।
उसके केवल माँ थी। वह
युवक था।
स्वामी-कन्या से वह किसी प्रेमी का सन्देश कह रहा था; राजा (जमींदार) को
सन्देह हुआ। वे क्रुद्ध हुए, बिगड़ गये, परन्तु कन्या के अनुरोध से उसके
प्राण बच गये। तब से वह डोंगी चलाकर अपना पेट पालता था।
तमिस्रा
आ रही थी। निर्जन प्रदेश नीरव था। लहरियों का कल-कल बन्द था। उसकी दोनों
आँखे प्रतीक्षा की दूती थीं। कोई आ रहा है! और भी ठहर जाऊँ-नहीं, लौट
चलूँ। डाँडे डोंगी से जल में गिरा दिये। ‘छप’ शब्द हुआ। उसे सिकतातट पर भी
पद-शब्द की भ्रान्ति हुई। रुककर देखने लगा।
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