कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“मैं उसे पुरस्कार-स्वरूप
दे आई हूँ। उसे पाने के लिए तो लूनी तट तक चलना
होगा।”
“तो चलूँगा।”
यात्रा
की तैयारी हुई। दोनों लौट चले। सेवक जब सन्ध्या को डोंगी लेकर लौटता है;
तब उसके हृदय में उस रमणी की सुध आ जाती है। वह अँगूठी निकालकर देखता और
प्रतीक्षा करता है कि रमणी लौटे, तो उसे दे दूँ। उसे विश्वास था, कभी तो
वह आवेगी।
डोंगी नीचे बँधी थी। वह
झोपड़ी से निकलकर चला ही था कि
सामने रमणी आती दिखाई पड़ी। साथ में एक पुरुष था। न जाने क्यों, वह डोंगी
पर जा बैठा। दोनों तीर पर आकर खड़े हो गये। रमणी ने पूछा- “मुझे पहचानते
हो?”
“अच्छी तरह।”
“मैंने तुम्हें कुछ
पुरस्कार दिया था।
वह मेरा प्रणय-चिह्न था। मेरा प्रिय मुझे नहीं लेगा, उसी चिह्न को लेगा।
इसीलिए तुमसे विनती करती हूँ कि उसे दे दो।”
“यह अन्याय है। मेरी
मजूरी मुझसे न छीनो।”
“मैं भीख माँगती हूँ।”
“मैं दरिद्र हूँ, देने
में असमर्थ हूँ।”
निरुपाय
होकर रमणी ने एकान्तवासी की ओर देखा। उसने कहा- ”तुमने तो उसे लौटा देने
के लिए ही रख छोड़ा है। वह देखो, तुम्हारी उँगली में चमक रहा है, क्यों
नहीं दे देते?”
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