कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
निशा का
अन्धकार कानन-प्रदेश में अपना पूरा अधिकार जमाये हुए है। प्राय: आधी रात
बीत चुकी है। पर केवल उन अग्नि-स्फुलिंगों से कभी-कभी थोड़ा-सा जुगनू
का-सा प्रकाश हो जाता है, जो कि रसिया के शस्त्र-प्रहार से पत्थर में से
निकल पड़ते हैं। दनादन चोट चली जा रही है - विराम नहीं है क्षण भर भी - न
तो उस शैल को और न उस शस्त्र को। अलौकिक शक्ति से वह युवक अविराम चोट
लगाये ही जा रहा है। एक क्षण के लिये भी इधर-उधर नहीं देखता। देखता है, तो
केवल अपना हाथ और पत्थर; उंगली एक तो पहले ही कुचली जा चुकी थी, दूसरे
अविराम परिश्रम! इससे रक्त बहने लगा था। पर विश्राम कहाँ? उस वज्रसार शैल
पर वज्र के समान कर से वह युवक चोट लगाये ही जाता है। केवल परिश्रम ही
नहीं, युवक सफल भी हो रहा है। उसकी एक-एक चोट में दस-दस सेर के ढोके
कट-कटकर पहाड़ पर से लुढक़ते हैं, जो सोये हुए जंगली पशुओं को घबड़ा देते
हैं। यह क्या है? केवल उसकी तन्मयता - केवल प्रेम ही उस पाषाण को भी तोड़े
डालता है।
फिर वही दनादन - बराबर
लगातार परिश्रम, विराम नहीं है!
इधर उस खिडक़ी में से आलोक भी निकल रहा है और कभी-कभी एक मुखड़ा उस खिडक़ी
से झॉंककर देख रहा है। पर युवक को कुछ ध्यान नहीं, वह अपना कार्य करता जा
रहा है।
अभी रात्रि के जाने के
लिए पहर-भर है। शीतल वायु उस कानन
को शीतल कर रही है। अकस्मात् 'तरुण-कुक्कुट-कण्ठनाद'* सुनाई पड़ा, फिर कुछ
नहीं। वह कानन एकाएक शून्य हो गया। न तो वह शब्द ही है और न तो पत्थरों से
अग्नि-स्फुलिंग निकलते हैं।
अकस्मात् उस खिडक़ी में
से एक सुन्दर
मुख निकला। उसने आलोक डालकर देखा कि रसिया एक पात्र हाथ में लिये है और
कुछ कह रहा है। इसके उपरान्त वह उस पात्र को पी गया और थोड़ी देर में वह
उसी शिलाखंड पर गिर पड़ा। यह देख उस मुख से भी एक हल्का चीत्कार निकल गया।
खिडक़ी बंद हो गयी। फिर केवल अन्धकार रह गया।
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