कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
प्रभात का
मलय-मारुत उस अर्बुद-गिरि के कानन में वैसी क्रीड़ा नहीं कर रहा है, जैसी
पहले करता था। दिवाकर की किरण भी कुछ प्रभात के मिस से मन्द और मलिन हो
रही है। एक शव के समीप एक पुरुष खड़ा है, और उसकी आँखों से अश्रुधारा बह
रही है, और वह कह रहा है- बलवंत! ऐसी शीघ्रता क्या थी, जो तुमने ऐसा किया?
यह अर्बुद-गिरि का प्रदेश तो कुछ समय में यह वृद्ध तुम्हीं को देता, और
तुम उसमें चाहे जिस स्थान पर अच्छे पर्यंक पर सोते। फिर, ऐसे क्यों पड़े
हो? वत्स! यह तो केवल तुम्हारी परीक्षा थी, यह तुमने क्या किया?
इतने
में एक सुन्दरी विमुक्त-कुन्तला-जो कि स्वयं राजकुमारी थी - दौड़ी हुई आयी
और उस शव को देखकर ठिठक गयी, नतजानु होकर उस पुरुष का, जो कि महाराज थे और
जिसे इस समय तक राजकुमारी पहचान न सकी थी - चरण धरकर बोली-महात्मन् ! क्या
व्यक्ति ने, जो यहाँ पड़ा है, मुझे कुछ देने के लिए आपको दिया है? या कुछ
कहा है?
महाराज ने चुपचाप अपने
वस्त्र में से एक वस्त्र का
टुकड़ा निकालकर दे दिया। उस पर लाल अक्षरों में कुछ लिखा था। उस सुन्दरी
ने उसे देखा और देखकर कहा- कृपया आप ही पढ़ दीजिये।
महाराज ने
उसे पढ़ा। उसमें लिखा था-मैं नहीं जानता था कि तुम इतनी निठुर हो। अस्तु;
अब मैं यहीं रहूँगा; पर याद रखना; मैं तुमसे अवश्य मिलूँगा, क्योंकि मैं
तुम्हें नित्य देखना चाहता हूँ, और ऐसे स्थान में देखूँगा, जहाँ कभी पलक
गिरती ही नहीं।
रसिया
इसी समय महाराज को सुन्दरी पहचान गयी, और फिर चरण धरकर बोली- पिताजी, क्षमा करना। और, शीघ्रतापूर्वक रसिया के कर-स्थित पात्र को लेकर अवशेष पी गयी और गिर पड़ी। केवल उसके मुख से इतना निकला- पिताजी, क्षमा करना। महाराज देख रहे थे!
(* वास्तव में वह शब्द कुक्कुट का नहीं बल्कि छद्म-वेशिनी महारानी का था, जो कि बलवंत सिंह ऐसे दीन व्यक्ति से अपनी कुसुम-कुमारी के पाणिग्रहण की अभिलाषा नहीं रखती थी। किन्तु महाराज इससे अनभिज्ञ थे। )
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