कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
दूरागत
पवन चम्पा के अञ्चल में विश्राम लेना चाहता था। उसके हृदय में गुदगुदी हो
रही थी। आज न जाने क्यों वह बेसुध थी। वह दीर्घकाल दृढ़ पुरुष ने उसकी पीठ
पर हाथ रख चमत्कृत कर दिया। उसने फिरकर कहा- ”बुधगुप्त!”
“बावली हो क्या? यहाँ
बैठी हुई अभी तक दीप जला रही हो, तुम्हें यह काम
करना है?”
“क्षीरनिधिशायी अनन्त की
प्रसन्नता के लिए क्या दासियों से आकाश-दीप
जलवाऊँ?”
“हँसी आती है। तुम किसको
दीप जलाकर पथ दिखलाना चाहती हो? उसको, जिसको
तुमने भगवान् मान लिया है?”
“हाँ, वह भी कभी भटकते
हैं, भूलते हैं, नहीं तो, बुधगुप्त को इतना ऐश्वर्य
क्यों देते?”
“तो बुरा क्या हुआ, इस
द्वीप की अधीश्वरी चम्पारानी!”
“मुझे
इस बन्दीगृह से मुक्त करो। अब तो बाली, जावा और सुमात्रा का वाणिज्य केवल
तुम्हारे ही अधिकार में है महानाविक! परन्तु मुझे उन दिनों की स्मृति
सुहावनी लगती है, जब तुम्हारे पास एक ही नाव थी और चम्पा के उपकूल में
पण्य लाद कर हम लोग सुखी जीवन बिताते थे-इस जल में अगणित बार हम लोगों की
तरी आलोकमय प्रभात में तारिकाओं की मधुर ज्योति में-थिरकती थी। बुधगुप्त!
उस विजन अनन्त में जब माँझी सो जाते थे, दीपक बुझ जाते थे, हम-तुम परिश्रम
से थककर पालों में शरीर लपेटकर एक-दूसरे का मुँह क्यों देखते थे? वह
नक्षत्रों की मधुर छाया.....”
“तो चम्पा! अब उससे भी
अच्छे ढंग से हम लोग विचर सकते हैं। तुम मेरी
प्राणदात्री हो, मेरी सर्वस्व हो।”
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