कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“नहीं-नहीं,
तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी परन्तु हृदय वैसा ही अकरुण, सतृष्ण और ज्वलनशील
है। तुम भगवान के नाम पर हँसी उड़ाते हो। मेरे आकाश-दीप पर व्यंग कर रहे
हो। नाविक! उस प्रचण्ड आँधी में प्रकाश की एक-एक किरण के लिए हम लोग कितने
व्याकुल थे। मुझे स्मरण है, जब मैं छोटी थी, मेरे पिता नौकरी पर समुद्र
में जाते थे-मेरी माता, मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में भागीरथी के तट
पर बाँस के साथ ऊँचे टाँग देती थी। उस समय वह प्रार्थना करती-'भगवान! मेरे
पथ-भ्रष्ट नाविक को अन्धकार में ठीक पथ पर ले चलना।' और जब मेरे पिता
बरसों पर लौटते तो कहते- 'साध्वी! तेरी प्रार्थना से भगवान् ने संकटों में
मेरी रक्षा की है।' वह गद्गद हो जाती। मेरी माँ? आह नाविक! यह उसी की
पुण्य-स्मृति है। मेरे पिता, वीर पिता की मृत्यु के निष्ठुर कारण,
जलदस्यु! हट जाओ।”- सहसा चम्पा का मुख क्रोध से भीषण होकर रंग बदलने लगा।
महानाविक ने कभी यह रूप न देखा था। वह ठठाकर हँस पड़ा।
“यह क्या, चम्पा? तुम
अस्वस्थ हो जाओगी, सो रहो।”- कहता हुआ चला गया।
चम्पा मुठ्ठी बाँधे उन्मादिनी-सी घूमती रही।
निर्जन
समुद्र के उपकूल में वेला से टकरा कर लहरें बिखर जाती थीं। पश्चिम का पथिक
थक गया था। उसका मुख पीला पड़ गया। अपनी शान्त गम्भीर हलचल में जलनिधि
विचार में निमग्न था। वह जैसे प्रकाश की उन्मलिन किरणों से विरक्त था।
चम्पा
और जया धीरे-धीरे उस तट पर आकर खड़ी हो गईं। तरंग से उठते हुए पवन ने उनके
वसन को अस्त-व्यस्त कर दिया। जया के संकेत से एक छोटी-सी नौका आई। दोनों
के उस पर बैठते ही नाविक उतर गया। जया नाव खेने लगी। चम्पा मुग्ध-सी
समुद्र के उदास वातावरण में अपने को मिश्रित कर देना चाहती थी।
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