कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
|
|
जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“मैंने कह दिया-‘कोई
चिन्ता नहीं’ किन्तु ऊपर जाकर बैठ
जाने पर भी मेरे कानों के समीप उस सुन्दर मुख का सुरभित निश्वास अपनी
अनुभूति दे रहा था। मैंने मन को शान्त किया। चाँदनी निकल आयी थी। घाट पर
आकाश-दीप जल रहे थे और गंगा की धारा में भी छोटे-छोटे दीपक बहते हुए दिखाई
देते थे।
“मोहन बाबू की बड़ी-बड़ी
गोल आँखें और भी फैल गयीं। उन्होंने कहा-‘मनोरमा,
देखो, इस दीपदान का क्या अर्थ है, तुम समझती हो?’
‘गंगाजी की पूजा, और
क्या?’-मनोरमा ने कहा।
‘यही
तो मेरा और तुम्हारा मतभेद है। जीवन के लघु दीप को अनन्त की धारा में बहा
देने का यह संकेत है। आह! कितनी सुन्दर कल्पना!’- कहकर मोहन बाबू जैसे
उच्छ्वसित हो उठे। उनकी शारीरिक चेतना मानसिक अनुभूति से मिलकर उत्तेजित
हो उठी। मनोरमा ने मेरे कानों में धीरे से कहा- ‘देखा न आपने!’
“मैं
चकित हो रहा था। बजरा पञ्चगंगा घाट के समीप पहुँच गया था। तब हँसते हुए
मनोरमा ने अपने पति से कहा- ‘और यह बाँसों में जो टँगे हुए दीपक हैं,
उन्हें आप क्या कहेंगे?’
“तुरन्त ही मोहन बाबू ने
कहा- ‘आकाश भी
असीम है न। जीवन-दीप को उसी ओर जाने के लिए यह भी संकेत है।’ फिर हाँफते
हुए उन्होंने कहना आरम्भ किया- ‘तुम लोगों ने मुझे पागल समझ लिया है, यह
मैं जानता हूँ। ओह! संसार की विश्वासघात की ठोकरों ने मेरे हृदय को
विक्षिप्त बना दिया है। मुझे उससे विमुख कर दिया है। किसी ने मेरे मानसिक
विप्लवों में मुझे सहायता नहीं दी। मैं ही सबके लिए मरा करूँ। यह अब मै
नहीं सह सकता। मुझे अकपट प्यार की आवश्यकता है। जीवन में वह कभी नहीं
मिला! तुमने भी मनोरमा! तुमने, भी मुझे....’
|