कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
मनोरमा घबरा उठी थी। उसने
कहा- ‘चुप रहिए, आपकी तबीयत बिगड़ रही है, शान्त
हो जाइए!’
“क्यों
शान्त हो जाऊँ? रामनिहाल को देख कर चुप रहूँ। वह जान जायँ, इसमें मुझे कोई
भय नहीं। तुम लोग छिपाकर सत्य को छलना क्यों बनाती हो?’ मोहन बाबू के
श्वासों की गति तीव्र हो उठी। मनोरमा ने हताश भाव से मेरी ओर देखा। वह
चाँदनी रात में विशुद्ध प्रतिमा-सी निश्चेष्ट हो रही थी।
“मैंने
सावधान होकर कहा- ‘माँझी, अब घूम चलो।’ कार्तिक की रात चाँदनी से शीतल हो
चली थी। नाव मानमन्दिर की ओर घूम चली। मैं मोहन बाबू के मनोविकार के
सम्बन्ध में सोच रहा था। कुछ देर चुप रहने के बाद मोहन बाबू फिर अपने आप
कहने लगे-
‘ब्रजकिशोर को मैं
पहचानता हूँ। मनोरमा, उसने तुम्हारे
साथ मिलकर जो षड्यन्त्र रचा है, मुझे पागल बना देने का जो उपाय हो रहा है,
उसे मैं समझ रहा हूँ। तो ....’
‘ओह! आप चुप न रहेंगे?
मैं कहती हूँ न! यह व्यर्थ का संदेह आप मन से निकाल
दीजिए या मेरे लिए संखिया मँगा दीजिए। छुट्टी हो।’
स्वस्थ
होकर बड़ी कोमलता से मोहन बाबू कहने लगे- ‘तुम्हारा अपमान होता है! सबके
सामने मुझे यह बातें न कहनी चाहिए। यह मेरा अपराध है। मुझे क्षमा करो,
मनोरमा!’ सचमुच मनोरमा के कोमल चरण मोहन बाबू के हाथ में थे! वह पैर
छुड़ाती हुई पीछे खिसकी। मेरे शरीर से उसका स्पर्श हो गया। वह क्षुब्ध और
संकोच में ऊभ-चूभ रमणी जैसे किसी का आश्रय पाने के लिए व्याकुल हो गयी थी।
मनोरमा ने दीनता से मेरी ओर देखते हुए कहा- ‘आप देखते हैं?’
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