कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“हाँ जी! यहीं आते हुए
कुछ वजीरियों से सामना हो गया। दो को तो ठिकाने लगा
दिया। थोड़ी-सी चोट मेरे पैर में भी आ गयी।”
“वजीरी!”
- कहकर बूढ़ा एक बार चिन्ता में पड़ गया। तब तक नन्दराम ने उसके सामने
रुपये की थैली उलट दी। बूढ़ा अपने घोड़े का दाम सहेजने लगा।
प्रेमा ने कहा- ”बाबा!
तुमने कुछ और भी कहा था। वह तो नहीं आया!”
बूढ़ा
त्योरी बदलकर नन्दराम को देखने लगा। नन्दराम ने कहा- ”मुझे घर में अस्तबल
के लिए एक दालान बनाना है। इसलिए बालियाँ नहीं ला सका।”
“नहीं नन्दराम! तुझको
पेशावर फिर से जाना होगा। प्रेमा के लिए बालियाँ
बनवा ला! तू अपनी बात रखता है।”
“अच्छा चाचा! अबकी बार
जाऊँगा, तो....ले ही आऊँगा।”
हिजरती
सलीम आश्चर्य से उनकी बातें सुन रहा था। सलीम जैसे पागल होने लगा था।
मनुष्यता का एक पक्ष वह भी है, जहाँ वर्ण, धर्म और देश को भूलकर मनुष्य,
मनुष्य के लिए प्यार करता है। उसके भीतर की कोमल भावना, शायरों की
प्रेम-कल्पना, चुटकी लेने लगी! वह प्रेम को ‘काफिर’ कहता था। आज उसने
चपाती खाते हुए मन-ही-मन कहा- ”बुते-काफिर!”
सलीम घुमक्कड़ी-जीवन
की लालसाओं से सन्तप्त, व्यक्तिगत आवश्यकताओं से असन्तुष्ट युक्तप्रान्त
का मुसलमान था। कुछ-न-कुछ करते रहने का उसका स्वभाव था। जब वह चारों ओर से
असफल हो रहा था, तभी तुर्की की सहानुभूति में हिजरत का आन्दोलन खड़ा हुआ
था। सलीम भी उसी में जुट पड़ा। मुसलमानी देशों का आतिथ्य कड़वा होने का
अनुभव उसे अफ़ग़ानिस्तान में हुआ। वह भटकता हुआ नन्दराम के घर पहुँचा था।
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