कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
सिकंदर घुटने के बल बैठ
गया और बोला- सुन्दरी! एक जीव के लिये तुम्हारी दो
तलवारें बहुत थीं, फिर तीसरी की क्या आवश्यकता है?
रमणी की दृढ़ता हट गयी,
और न जाने क्यों उसके हाथ का छुरा छटककर गिर पड़ा,
वह भी घुटनों के बल बैठ गयी।
सिकंदर
ने उसका हाथ पकड़कर उठाया। अब उसने देखा कि सिकंदर अकेला नहीं है, उसके
बहुत से सैनिक दुर्ग पर दिखाई दे रहे हैं। रमणी ने अपना हृदय दृढ़ किया और
संदूक खोलकर एक जवाहिरात का डिब्बा ले आकर सिकंदर के आगे रक्खा। सिकंदर ने
उसे देखकर कहा- मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है, दुर्ग पर मेरा अधिकार हो गया,
इतना ही बहुत है।
दुर्ग के सिपाही यह देखकर
कि शत्रु भीतर आ गया
है, अस्त्र लेकर मारपीट करने पर तैयार हो गये। पर सरदार-पत्नी ने उन्हें
मना किया, क्योंकि उसे बतला दिया गया था कि सिकंदर की विजयवाहिनी दुर्ग के
द्वार पर खड़ी है।
सिकंदर ने कहा- तुम
घबड़ाओ मत, जिस तरह से तुम्हारी इच्छा होगी, उसी
प्रकार सन्धि के नियम बनाये जायँगे। अच्छा, मैं जाता हूँ।
अब सिकंदर को थोड़ी दूर
तक सरदार-पत्नी पहुँचा गयी। सिकंदर थोड़ी सेना
छोड़कर आप अपने शिविर में चला गया।
सन्धि
हो गयी। सरदार-पत्नी ने स्वीकार कर लिया कि दुर्ग सिकंदर के अधीन होगा।
सिकंदर ने भी उसी को यहाँ की रानी बनाया और कहा- भारतीय योद्धा जो
तुम्हारे यहाँ आये हैं, वे अपने देश को लौटकर चले जायँ। मैं उनके जाने में
किसी प्रकार की बाधा न डालूँगा। सब बातें शपथपूर्वक स्वीकार कर ली गयीं।
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