कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“तब मैं अवश्य चला
जाऊँगा, चम्पा! यहाँ रहकर मैं अपने
हृदय पर अधिकार रख सकूँ-इसमें सन्देह है। आह! उन लहरों में मेरा विनाश हो
जाय।”- महानाविक के उच्छ्वास में विकलता थी। फिर उसने पूछा-”तुम अकेली
यहाँ क्या करोगी?”
“पहले विचार था कि
कभी-कभी इस दीप-स्तम्भ पर
से आलोक जला कर अपने पिता की समाधि का इस जल से अन्वेषण करूँगी। किन्तु
देखती हूँ, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाश-दीप।”
एक दिन
स्वर्ण-रहस्य के प्रभात में चम्पा ने अपने दीप-स्तम्भ पर से देखा-
सामुद्रिक नावों की एक श्रेणी चम्पा का उपकूल छोड़कर पश्चिम-उत्तर की ओर
महा जल-व्याल के समान सन्तरण कर रही है। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।
यह
कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है। चम्पा आजीवन उस दीप-स्तम्भ में आलोक
जलाती रही। किन्तु उसके बाद भी बहुत दिन, दीपनिवासी, उस माया-ममता और
स्नेह-सेवा की देवी की समाधि-सदृश पूजा करते थे।
एक दिन काल के कठोर हाथों
ने उसे भी अपनी चञ्चलता से गिरा दिया।
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