कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
|
0 |
जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
जया नीचे चली गई थी।
स्तम्भ के संकीर्ण प्रकोष्ठ में बुधगुप्त और चम्पा
एकान्त में एक दूसरे के सामने बैठे थे।
बुधगुप्त
ने चम्पा के पैर पकड़ लिये। उच्छ्वसित शब्दों में वह कहने लगा- चम्पा, हम
लोग जन्मभूमि-भारतवर्ष से कितनी दूर इन निरीह प्राणियों में इन्द्र और शची
के समान पूजित हैं। पर न जाने कौन अभिशाप हम लोगों को अभी तक अलग किये है।
स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश! वह महिमा की प्रतिमा! मुझे वह स्मृति
नित्य आकर्षित करती है; परन्तु मैं क्यों नहीं जाता? जानती हो, इतना
महत्त्व प्राप्त करने पर भी मैं कंगाल हूँ! मेरा पत्थर-सा हृदय एक दिन
सहसा तुम्हारे स्पर्श से चन्द्रकान्तमणि की तरह द्रवित हुआ।
“चम्पा!
मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं दया को नहीं समझ
सकता, मैं उस लोक में विश्वास नहीं करता। पर मुझे अपने हृदय के एक दुर्बल
अंश पर श्रद्धा हो चली है। तुम न जाने कैसे एक बहकी हुई तारिका के समान
मेरे शून्य में उदित हो गई हो। आलोक की एक कोमल रेखा इस निविड़तम में
मुस्कराने लगी। पशु-बल और धन के उपासक के मन में किसी शान्त और एकान्त
कामना की हँसी खिलखिलाने लगी; पर मैं न हँस सका!
“चलोगी चम्पा?
पोतवाहिनी पर असंख्य धनराशि लाद कर राजरानी-सी जन्मभूमि के अंक में? आज
हमारा परिणय हो, कल ही हम लोग भारत के लिए प्रस्थान करें। महानाविक
बुधगुप्त की आज्ञा सिन्धु की लहरें मानती हैं। वे स्वयं उस पोत-पुञ्ज को
दक्षिण पवन के समान भारत में पहुँचा देंगी। आह चम्पा! चलो।”
चम्पा
ने उसके हाथ पकड़ लिये। किसी आकस्मिक झटके ने एक पलभर के लिऐ दोनों के
अधरों को मिला दिया। सहसा चैतन्य होकर चम्पा ने कहा- ”बुधगुप्त! मेरे लिए
सब भूमि मिट्टी है; सब जल तरल है; सब पवन शीतल है। कोई विशेष आकांक्षा
हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित नहीं। सब मिलाकर मेरे लिए एक शून्य है।
प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए, और मुझे,
छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्राणियों के दु:ख की सहानुभूति और सेवा के
लिए।”
|