कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
|
0 |
जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
छोटे-से मञ्च पर बैठी,
गंगा की उमड़ती हुई धारा को
पन्ना अन्य-मनस्क होकर देखने लगी। उस बात को, जो अतीत में एक बार, हाथ से
अनजाने में खिसक जानेवाली वस्तु की तरह गुप्त हो गयी हो; सोचने का कोई
कारण नहीं। उससे कुछ बनता-बिगड़ता भी नहीं; परन्तु मानव-स्वभाव हिसाब रखने
की प्रथानुसार कभी-कभी कही बैठता है, “कि यदि वह बात हो गयी होती तो?” ठीक
उसी तरह पन्ना भी राजा बलवन्तसिंह द्वारा बलपूर्वक रानी बनायी जाने के
पहले की एक सम्भावना को सोचने लगी थी। सो भी बाबू नन्हकूसिंह का नाम सुन
लेने पर। गेंदा मुँहलगी दासी थी। वह पन्ना के साथ उसी दिन से है, जिस दिन
से पन्ना बलवन्तसिंह की प्रेयसी हुई। राज्य-भर का अनुसन्धान उसी के द्वारा
मिला करता। और उसे न जाने कितनी जानकारी भी थी। उसने दुलारी का रंग
उखाड़ने के लिए कुछ कहना आवश्यक समझा।
“महारानी! नन्हकूसिंह
अपनी
सब जमींदारी स्वाँग, भैंसों की लड़ाई, घुड़दौड़ और गाने-बजाने में उड़ाकर
अब डाकू हो गया है। जितने खून होते हैं, सब में उसी का हाथ रहता है। जितनी
....” उसे रोककर दुलारी ने कहा- ”यह झूठ है। बाबू साहब के ऐसा धर्मात्मा
तो कोई है ही नहीं। कितनी विधवाएँ उनकी दी हुई धोती से अपना तन ढँकती है।
कितनी लड़कियों की ब्याह-शादी होती है। कितने सताये हुए लोगों की उनके
द्वारा रक्षा होती है।”
रानी पन्ना के हृदय में
एक तरलता उद्वेलित हुई। उन्होंने हँसकर कहा-
”दुलारी, वे तेरे यहाँ आते हैं न? इसी से तू उनकी बड़ाई....।”
“नहीं सरकार! शपथ खाकर कह
सकती हूँ कि बाबू नन्हकूसिंह ने आज तक कभी मेरे
कोठे पर पैर भी नहीं रखा।”
|