कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
नन्हकूसिंह
उन्मत्त हो उठा था। दुलारी ने देखा, नन्हकू अन्धकार में ही वट वृक्ष के
नीचे पहुँचा और गंगा की उमड़ती हुई धारा में डोंगी खोल दी-उसी घने अन्धकार
में। दुलारी का हृदय काँप उठा।
16 अगस्त सन् 1781 को
काशी
डाँवाडोल हो रही थी। शिवालयघाट में राजा चेतसिंह लेफ्टिनेण्ट इस्टाकर के
पहरे में थे। नगर में आतंक था। दूकानें बन्द थीं। घरों में बच्चे अपनी माँ
से पूछते थे- ‘माँ, आज हलुए वाला नहीं आया।’
वह कहती-‘चुप बेटे!’
सडक़ें
सूनी पड़ी थीं। तिलंगों की कम्पनी के आगे-आगे कुबरा मौलवी कभी-कभी,
आता-जाता दिखाई पड़ता था। उस समय खुली हुई खिड़कियाँ बन्द हो जाती थीं। भय
और सन्नाटे का राज्य था। चौक में चिथरूसिंह की हवेली अपने भीतर काशी की
वीरता को बन्द किये कोतवाल का अभिनय कर रही थी। इसी समय किसी ने
पुकारा-”हिम्मतसिंह!”
खिडक़ी में से सिर निकाल
कर हिम्मतसिंह ने पूछा- ”कौन?”
“बाबू नन्हकूसिंह!”
“अच्छा, तुम अब तक बाहर
ही हो?”
“पागल! राजा कैद हो गये
हैं। छोड़ दो इन सब बहादुरों को! हम एक बार इनको
लेकर शिवालयघाट पर जायँ।”
“ठहरो”-
कहकर हिम्मतसिंह ने कुछ आज्ञा दी, सिपाही बाहर निकले। नन्हकू की तलवार चमक
उठी। सिपाही भीतर भागे। नन्हकू ने कहा- ”नमकहरामों! चूडिय़ाँ पहन लो।”
लोगों के देखते-देखते नन्हकूसिंह चला गया। कोतवाली के सामने फिर सन्नाटा
हो गया।
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