कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
मंसूर-
जहाँपनाह! वह तो गुलाम है। फकत हुजूर की कदमबोसी हासिल करने के लिये आया
है। और, उसकी तो यही अर्जी है कि हमारे आका शाहंशाहआलम-हिंद एक काफिर के
हाथ की पुतली न बने रहें। अगर हुक्म दें, तो क्या यह गुलाम वह काम नहीं कर
सकता?
शाहआलम- मंसूर! इसके
माने?
मंसूर- बंदापरवर! वह
दिल्ली की वजारत के लिये अर्ज करता है और गुलामी में हाजिर होना चाहता है।
उसे तो सिन्धिया से रंज है, हुजूर तो उसके मेहरबान आका हैं।
शाहआलम- (जरा तनकर) हाँ
मंसूर, उसे हमने बचपन से पाला है, और इस लायक
बनाया।
मंसूर- (मन में) और उसे
आपने ही, खुद-गरजी से- जो काबिले-नफरत थी -दुनिया
के किसी काम का न रक्खा, जिसके लिये वह जी से जला हुआ है।
शाहआलम- बोलो मंसूर! चुप
क्यों हो? क्या वह एहसान-फरामोश है?
मंसूर- हुजूर! फिर, गुलाम
खिदमत में बुलाया जावे?
शाहआलम- वजारत देने में
मुझे कोई उज्र नहीं है। वह सँभाल सकेगा?
मंसूर- हुजूर, अगर वह न
सँभाल सकेगा, तो उसको वही झेलेगा। सिन्धिया खुद
उससे समझ लेगा।
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