धर्म एवं दर्शन >> क्रोध क्रोधरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन
भुशुण्डिजी के गुरुजी ने भगवान् शंकर के लिये जो शब्द कहे, वे बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। वे कहते हैं कि भगवान् शंकर देखने में परम कराल लगते हैं पर भीतर से परम कृपालु हैं –
इस प्रकार क्रोध का एक स्वरूप वह है कि जो भगवान् शंकर के चरित्र में दिखायी देता है और क्रोध का दूसरा रूप सामने आता है प्रतापभानु के प्रसंग में।
'प्रतापभानु' बड़ा धर्मात्मा राजा था। एक अच्छे राजा के रूप में उसकी ख्याति थी। वह अनेकानेक यज्ञ करता था, पर आचार्यों और ऋषियों के द्वारा उद्देश्य पूछे जाने पर यही कहता था कि 'इन यज्ञों को सम्पन्न करने के पीछे मेरी कोई फलाकांक्षा नहीं है, ये यज्ञ और यज्ञफल दोनों ही भगवान् को अर्पित हैं। इसे सुनकर तो ऐसा लगता है कि गीता का यह वाक्य, जिसमें कहा गया है कि-
उसके जीवन में पूरी तरह चरितार्थ हो चुका है और प्रतापभानु एक महान् निष्काम कर्मयोगी है जिसके जीवन में पूर्ण 'समर्पण-भावना' है। पर सत्य यह है कि वह ऊपर से चाहे जैसा भी लगता हो, उसके भीतर कामनाएँ और वासनाएँ छिपी हुई थीं।
उसके इस दिखावटी व्यवहार के पीछे भी एक कारण था। उसने शास्त्रों के उन वचनों को पढ़-सुन लिया था, जिसमें यह कहा गया है कि 'निष्काम' होना सबसे ऊँची स्थिति है। इसलिए प्रतापभानु यह सोचकर कि यदि मैं कामना व्यक्त करूँगा तो कहीं नीची स्थिति वाला न मान लिया जाऊँ, मात्र अपने आप को ऊँची स्थिति वाला सिद्ध करने के लिये ही निष्कामता का दिखावा करता है। 'आप स्वाभाविक रूप से जैसे हैं, उसी रूप में अपने आपको स्वीकार कर लेना, यह सरलता है, पर जो हैं उससे एक भिन्न रूप में अपने आपको दिखाने की चेष्टा करना, यह दंभ है। प्रतापभानु के जीवन में वस्तुत: दंभ ही विद्यमान था, निष्कामता नहीं थी।
वर्णन आता है कि उस समय एक राजा ऐसा भी था जिसका राज्य प्रतापभानु ने छीन लिया था। वह राजा पराजय के क्रोध से भरा हुआ था और बदला लेने की ताक में रहता था। पर वह अपने मनोभावों को छिपा लेने की कला में भी बड़ा निपुण था। इसलिए-
बिपिन बसइ तापस के साजा।। 1/157/5
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