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धर्म एवं दर्शन >> क्रोध

क्रोध

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9813
आईएसबीएन :9781613016190

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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन


तुम्हें लाभ-हानि में तथा जय-पराजय में सम होना है। भगवान् कृष्ण का अभिप्राय है कि यह मत मान लो कि यदि आज विजय हो गयी तो फिर कभी हार नहीं होगी आज लाभ हो गया तो कभी हानि नहीं होगी। इस तत्त्वज्ञान का सच्चा परिचय अर्जुन को महाभारत के युद्ध में नहीं मिला, क्योंकि वहाँ तो वह युद्ध जीत गया। इसका सच्चा अर्थ तो उस समय उन्हें ज्ञात हुआ जब वे द्वारका से गोपिकाओं, भगवान् कृष्ण के संबंधियों तथा धन इत्यादि को सुरक्षा प्रदान करते हुए वापस लौट रहे थे। मार्ग में किरात और भीलों ने उन पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने अर्जुन को ललकारते हुए कहा - इन स्त्रियों और धन सम्पत्ति को छोड़ जाओ, अन्यथा हम लोग इन्हें छीनकर ले लेंगे। उनकी बातें सुनकर अर्जुन को लगा कि ये जंगली भील-किरात मुझे पहचानते नहीं हैं, इसलिए ऐसी धृष्टता कर रहे हैं। उनसे पूछा - तुम लोग यह जानते हो या नहीं कि मैं कौन हूँ? उन्होंने कहा कि हमें ज्ञात है कि आप अर्जुन हैं। ''फिर भी तुम लोगों को इतना साहस हो गया कि मुझसे छीनकर लेने की बात कर रहे हो? अर्जुन ने आश्चर्य से पूछा! उन्होंने कहा कि यदि आप रोक सकते हैं तो रोक लीजिये! सचमुच वहाँ एक अनोखा दृश्य उपस्थित हो गया।

अर्जुन ने गांडीव चलाने की बात सोची, पर आश्चर्य! उनसे उस धनुष पर न तो डोरी चढ़ पा रही थी और न ही वे बाण चला रहे थे! अर्जुन के सामने ही इन कोल-किरातों ने सब कुछ लूट लिया। आज अर्जुन को इस बात का ज्ञान हुआ कि महाभारत के रणांगण में भगवान् कृष्ण ने उनसे यह क्यों नहीं कहा था कि - 'जब मैं तुम्हारे पास हूँ तो तुम्हे कौन हरायेगा, अपितु यह कहा था कि 'तुम्हें हानि-लाभ और जय-पराजय में सम रहना है।' अर्जुन के लिये यह कठिन परीक्षा की घड़ी थी, क्योंकि विजय काल में तो 'समता' दंभ से भी प्रदर्शित की जा सकती है, पर असली परीक्षा तो पराजय के क्षण में भी समत्व में स्थित रहने में है।

प्रतापभानु अपने बाण को निष्फल होते देखकर तिलमिला उठा। यदि उसके जीवन में समता होती, तो ढेरों शिकार प्राप्त करने के बाद भी एक शूकर को नहीं मार पाने से वह इतना क्षुब्ध और कुद्ध नहीं होता। 'क्रोध क्यों आता है? इसे बताते हुए भगवान् कृष्ण गीता में कहते हैं कि -

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोभिजायते।। गीता' 2/61

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