धर्म एवं दर्शन >> क्रोध क्रोधरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन
जब मन में कोई कामना होती है और यदि उस कामना की पूर्ति में कोई बाधा आती है तो व्यक्ति में क्रोध का भाव उत्पन्न होता है। क्रोध का एक स्वरूप तो यह है और दूसरा रूप है - लोककल्याण के लिये क्रोध करना, जहाँ अपनी कोई व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं है। क्रोध का यह दूसरा रूप बहुत कम व्यक्तियों के जीवन में दिखायी देता है। प्रतापभानु को क्रोध, निशाना चूक जाने से ही आ गया। जब-जब उसका तीर निशाने पर लगता था तो साथ के लोग 'वाह-वाह' करते थे, पर जब तीर नहीं लगा तो फिर कौन 'वाह-वाह' करे? प्रतापभानु क्रोध से भरकर उस शूकर का पीछा करता है-
उसने निश्चय किया कि मैं इसे मार कर ही रहूँगा। परिणाम हुआ कि उसके साथ के सेवक, मंत्री पीछे छूट गये। मानो यहाँ एक बहुत बड़ा व्यंग्य है, आप सफल हैं, तभी तक भीड़ आपके साथ है, पर जिस दिन आप निष्फल हो जायँगे उस दिन सब आपका साथ छोड़ देंगे। गोस्वामीजी कहते हैं कि प्रतापभानु उस वन में बिल्कुल अकेला हो गया -
तदपि न मृग मग तजइ नरेसू।। 1/156/6
पर अकेला हो जाने पर भी वह मृग का पीछा करना नहीं छोड़ता और तब इस 'दंभी' राजा का एक कपटी मुनि से मिलन होता है। आप जानते ही हैं कि 'जो नहीं है उसे दिखलाना' यह दंभ है और 'जो है उसे छिपाना' कपट है।
कपट-मुनि ही पराजित राजा था जो बदला लेने के लिये बेचैन था। आज उसे ऐसा अवसर प्राप्त हो जाता है, जिसकी उसे प्रतीक्षा थी। दोनों के बीच जब वार्तालाप होता है तो प्रतापभानु उससे अत्यधिक प्रभावित हो जाता है। कपटमुनि उसे अपने वश में जानकर उससे कहता है कि मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ तुम्हें जो माँगना हो माँग लो। प्रतापभानु आज यह नहीं कहता कि 'मुझे कुछ भी नहीं चाहिये।' वह कहता है - महाराज! जब माँगने के लिये कह रहे हैं और यदि मैं न माँगूँ यह तो आपका अनादर होगा, अत: सोचता है कि कुछ तो माँग ही लूँ और उस कुछ माँग को सुनकर कपट-मुनि मन-ही-मन खूब हँसा - वाह रे निष्काम राजा! तुम्हारे कुछ में तो सब कुछ ही समाया हुआ है। गोस्वामीजी लिखते हैं कि कपट-मुनि ने जब यह कहा कि-
मागु जो भूप भाव मन माहीं।। 1/163/5
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