धर्म एवं दर्शन >> क्रोध क्रोधरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन
उस समय भगवान् राम को भी यह विचार करना पड़ा कि-
कभी-कभी बहुत सीधा होना भी दोष मान लिया जाता है-
परशुरामजी अब लक्ष्मण के स्थान पर मुझसे उलझ रहे हैं। आपने एक कथा सुनी होगी जिसमें एक महात्मा ने सर्प को उपदेश देते हुए कहा कि तुम अपने जहर के द्वारा लोगों को मार डालते हो, यह ठीक नहीं है, अत: क्रोध और हिंसा छोड़ दो। सर्प ने महात्माजी की आज्ञा स्वीकार कर ली। महात्माजी चले गये। कुछ दिनों बाद जब वे लौटकर आये तो देखा कि सर्प अधमरा-सा पड़ा हुआ है। महात्माजी ने चिंतित होकर पूछा- यह तुम्हारी क्या दशा हो गयी है? सर्प ने कहा- महाराज! यह तो आपके ही उपदेश का फल है। लोगों ने मुझे मारा-पीटा, पर मैंने आपको वचन दिया था, इसलिये मैं अहिंसक बना रहा जिसके कारण मेरी यह दशा हो गयी है। महात्मा ने कहा - मैंने तुम्हें काटने के लिये मना किया था, फुफकारने के लिये थोड़े ही रोका था। अरे! तुम फुफकार कर लोगों को डराते रहते जिससे कि वे तुम्हारा अहित तो न कर पाते।
भगवान् राम ने समझ लिया था कि परशुरामजी व्यर्थ ही मेरे ऊपर क्रोध कर रहे हैं। पर यह जानते हुए भी वे सोचते हैं कि परशुरामजी मुझसे बड़े हैं, उनके क्रोध का उत्तर क्रोध से देना समस्या का समाधान नहीं है। यही भगवान् राम का दर्शन है। वे जानते हैं कि क्रोध से क्रोध मिटता नहीं, इसलिये वे अपने मृदु और गूढ़ वचनों से ऐसा सुदृढ़ बांध बनाते हैं कि जिससे परशुरामजी के क्रोध रूपी नदी की उद्दाम और बलवती, धारा तट की मर्यादा का अतिक्रमण न कर सके। हम देखते हैं, सचमुच परशुरामजी विचार करने लगते हैं - कैसा अद्भुत है यह राजकुमार! मैंने कितनी कठोर बातें कहीं, इसे बार-बार चुनौती देता रहा, पर यह तो बिल्कुल शान्त बना रहा। यह बोल तो रहा है विनम्रतापूर्वक पर, अन्य राजाओं की तरह इसमें भय का लेश भी दिखायी नहीं देता। तब वे भगवान् राम से यह पूछ देते हैं - तुम मुझसे डरते हो या नहीं डरते?
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