लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> क्रोध

क्रोध

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9813
आईएसबीएन :9781613016190

Like this Hindi book 0

मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन

परिहरि कोपु करिअ अब दाया।
टूट चाप नहिं जुरिहिं रिसाने।
बैठे होइहिं पाय पिराने।। 1/277/1,2


लक्ष्मणजी की बातें सुनकर जनकजी भी डर गये कि यदि लक्ष्मणजी ऐसे ही बोलते रहे, तब फरसा चल जायगा, इसलिये उन्होंने कहा-

मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं। 1/277/4


इस बालक को रोकना चाहिये, यह अनुचित बोल रहा है। भगवान् राम ने भौंहें थोड़ी सी टेढ़ी करके लक्ष्मणजी की ओर देखा - नयन तरेरे राम।' भगवान् की बंकिम दृष्टि देखकर लक्ष्मणजी मुस्कराये और बोलना बंद करके विश्वामित्र जी के पास जाकर खड़े हो गये। भगवान् राम ने जब आँखें तरेर के लक्ष्मणजी की ओर देखा, तो परशुरामजी भी थोड़े प्रसन्न हुए, यह सोचकर कि यह छोटा राजकुमार जो बोल रहा है वह अनुचित है, तभी तो उसका बड़ा भाई इस तरह से उसे देख रहा है। लक्ष्मणजी चुप हो गये पर परशुरामजी यह नहीं समझ पाये कि लक्ष्मणजी हँसे क्यों? वस्तुत: लक्ष्मणजी भगवान् राम की भौंहे टेढ़ी करने से यह सोचकर प्रसन्न थे, कि चलिये! आपने भौंहें तो टेढ़ी की। अन्यथा आपके बारे में लोगों को भ्रम हो जाता कि आपको क्रोध करना आता ही नहीं। यह तो अच्छा हुआ, अब आपके सामने गलती करते हुए कम-से-कम लोग डरेंगे तो।

भगवान् राम को आशा थी कि अब परशुरामजी का क्रोध शान्त हो जायगा क्योंकि लक्ष्मणजी न तो बोल रहे थे और न ही हँस रहे थे। पर ऐसा हुआ नहीं। उल्टे, परशुरामजी कहने लगे कि भले ही यह न बोल रहा हो, न हँस रहा हो, पर देखो तो कैसे घूर-घूर कर देख रहा है? मैं क्रोध न करूँ तो क्या करूँ? -

कह मुनि राम जाइ रिस कैसें।
अजहुँ अनुज तब चितव अनैसें।। 1/178/7


कुछ लोग ऐसे स्वभाव के ही होते हैं कि जिन्हें छोटी-छोटी बातों पर क्रोध आ जाता है। कुछ देर बाद फिर ऐसी स्थिति आ गयी कि लक्ष्मणजी को वहाँ से भी बोलना ही पड़ गया। अब तो परशुरामजी को भगवान् राम पर ही क्रोध आ गया। वे कहने लगे - राम! मैंने तो यह समझा था कि उसे तुमने आँख तरेर कर डाँटा था, पर मैं अब समझा कि तुमने उसे डाँटा नहीं था, बल्कि आँख से इशारा किया था कि यहाँ से नहीं, गुरुजी के पास जाकर वहाँ से बोलो। यह सब तेरी सम्मति से कर रहा है और तू बड़ा सीधा बन रहा है। मैं तुम्हारे इस छल को समझ गया -

बंधु कहइ कटु संमत तोरें।
तू छल बिनय करसि कर जोरे।। 1/280/1

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book