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धर्म एवं दर्शन >> प्रसाद

प्रसाद

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :29
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9821
आईएसबीएन :9781613016213

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प्रसाद का तात्विक विवेचन


महाराज श्रीजनक और जनकपुरवासी वेदान्ती हैं। जब वेदान्त का अतिरेक हो जाता है तो सूखा पड़ जाता है। जब सब लोग विचार बहुत करने लगते हैं, विवेक ही विवेक की बातें होने लगती हैं तो भावना का लोप हो जाता है। शरीर अनित्य है, संसार मिथ्या है, नाम-रूप मिथ्या है, इस प्रकार जब व्यक्ति बार-बार निषेध करता है तो एक तरह से लाभकारी है कि आप यह जान लें कि इसको खाने से यह रोग होता है, इसको खाने से यह रोग होता है तो यह तो वास्तविक ही है-जिसने खाया उसको वह रोग हुआ, यह प्रमाण भी है, परन्तु कितना भी बढ़िया भाषण दें, अन्त में प्रश्न यह होता है कि आप निषेध करते हैं कि यह मत खाओ, यह मत खाओ। अब आप कृपया यह भी तो बताइए कि आखिर खायें क्या? बिना खाये तो शरीर चल नहीं सकता। निषेध लाभकारी है, यह यथार्थ भी है, परन्तु जीवन यदि चलेगा तो विधि के आधार पर ही। सीताजी के आगमन का अर्थ क्या हुआ?

सूर्य का प्रकाश तो बड़ा उपयोगी है, परन्तु जब गर्मी के रूप में सूर्य का प्रकाश बढ़ता ही जाता है तो कैसा सूखापन आ जाता है? और तब हम प्रार्थना करते हैं कि किसी तरह से पानी बरसे, हरियाली हो तब राहत मिले। जनकपुर में जब तक सीताजी का आगमन नहीं हुआ, तब तक अकाल नहीं मिटा। सीताजी साक्षात् भक्त्तिरूपा हैं। इसका अर्थ हुआ कि ज्ञान के प्रकाश में जब तक भक्ति देवी नहीं आयेंगी, तब तक काम नहीं चलेगा। हम जिस भावना और रस की अपेक्षा करते हैं, वह नहीं मिल सकता।

रूप मिथ्या है, व्यक्ति भी मिथ्या ही है, परन्तु व्यवहार में तो हमें व्यक्ति से ही व्यवहार करना पड़ता है। रूप मिथ्या है तो आप आँख मूँद लें, परन्तु आँख बन्द कर लेने से रूप दिखायी देना बन्द हो जायेगा क्या? प्रत्यक्ष स्कूल में नहीं तो कल्पना में दिखायी देगा। ऐसा भी देखा जाता है कि जिसका निषेध किया जाता है, वह और भी अधिक सामने आता है। निषेध के रूप में जितना अधिक चिन्तन होने लगता है, उतना साधारण स्थिति में नहीं होता-

जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा। 2/276/1

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