धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
जीवनसर्वस्व के दर्शन हुए और मन उसमें समा गया। अब उनका हर्ष, शोक, दुःख, सुख, रूप, स्वरूप चितचोर में मिलकर एकमेव हो गया। उसे अब खोजना व्यर्थ है – इसे चाहे योगी की निर्विकल्प समाधि कह लें, चाहे प्रियतम का मिलन, बात एक ही है। “हेरत हार हेरान रहिमन आपुहि आप में” कैसा आश्चर्य है?
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन।।
अहा! यह बेसुधी ही तो ज्ञान का भी चरम लक्ष्य है। लाल की लाली की खोज में लाल ही तो होना पड़ा। प्रेमी सर्वथा आत्म-विस्मृत हो रहा है। वियोगी सोच नहीं पाता कि मैं कभी पृथक् था। ‘मैं’ की अनुभूति भी जाती रही। बस केवल प्रेम ही प्रेमभाव-मग्नता शेष रही। श्रीमदभागवत में इसी स्थिति का उल्लेख किया गया है।
ता नाविदन्मय्यनुषंगबद्धधियः स्वमात्मानमदस्त थेदम्।
यथा समाधौ मुनयोऽब्धितोये नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे।।
“जैसे समाधिस्थ मुनि जन और समुद्र में मिलकर नदियाँ अपना नाम रूप खो देती हैं उसी प्रकार सदा मुझमें मन लगे रहने के कारण उन्हें अपनी विस्मृति रहती है।”
श्री भरत ही नहीं निषादराज और शत्रुघ्न की भी वहीं स्थिति है और प्रभु की भी। प्रतीक्षा के पश्चात् वे शान्त भाव से बैठे हुए हैं। मुख पर मुस्कराहट आ रही है। वह इसलिए कि शरीर से कुछ दूरी होने पर भी मन से दोनों मिलनानन्द में मग्न हैं। तब व्याकुलता कैसी?
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