धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
और सुनते ही रामानन्य “गुरु पितु मातु न जानऊँ काहू” का सिद्धान्त मानने वाले भैया लक्ष्मण भी क्षण भर के लिए भरत के स्नेह-प्रवाह में पड़ गए। हृदय में द्वन्द्व खड़ा हो गया। एक ओर सरल बन्धु स्नेह और दूसरी ओर सेवाधर्म। श्रीलक्ष्मण जी के जीवन में यह प्रथम क्षण हैं, जब किसी का स्नेह प्रभुसेवा की तुलना में उपस्थित हुआ है – बलिहारी है श्री भरत-स्नेह की। कैसा अद्भुत द्वन्द्व है। तब अनन्य व्रती का निर्णय सेवक धर्म की ओर होता, यह स्वाभाविक भी है। पर मन तो चला ही गया बन्धु के निकट। हाँ उसे वापस लाना है। अतः चतुर पतंग उड़ाने वाले की तरह (बीच में ढील दे देकर) पतंग नीचे उतारते हैं। एक साथ खींच लेने पर धागे के टूट जाने का भय बना रहता। मन में श्री भरत की गुणगाथा (यह ढील है) गाते हुए समाहित हो जाते हैं। इसके पश्चात् बड़ी ही शीघ्रता से पृथ्वी पर झुककर नित्यकिशोर को प्रणाम करके प्रेमभरे शब्दों में बोले, “हे रघुकुलशिरोमणे! भ्राता भरत आपको प्रणाम कर रहे हैं” ‘करत प्रणाम भरत रघुनाथा’। तब चौंक पड़े रसिकशेखर! क्योंकि यहाँ तो श्री भरत की मानसमूर्ति से वार्तालाप हो रहा था। तन्मयता में उन्हें इसका भान ही न था कि भरत तो भूमि पर पड़े हुए हैं। श्री लक्ष्मण से सूचना पाते ही प्रभु अधीर हो जाते हैं।
‘भरत’ शब्द कर्णकुहरों में प्रविष्ट होकर मतिधीर को भी अधीर बना देता है उस समय की विह्वलता का चित्रण गोस्वामी जी के शब्दों में पढ़िए –
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