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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


उस समय रसिक-वर कौशलेन्द्र की अधीरता की तुलना कृष्ण-प्रेम-सारसर्वस्व महाभाग ब्रजांगनाओं की साक्षान्मन्मथ-श्यामसुन्दर की कलवेणु से विनिःसृत आह्वान वाणी को सुनकर हुई अधीरता से ही की जा सकती है। भगवान् व्यास उसका वर्णन करते हुए कहते हैं –

निशम्य   गीतं  तदनङ्गवर्धनं   ब्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः।
आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः स यत्र कान्तो जवलोल कुण्डलाः।।
दुहन्त्योऽभिययुः काश्चिद्  दोहं हित्वा सुमुत्सुकाः।
पयोऽधिश्रित्य     संयावमनुद्वास्यापरा    ययुः।
परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा   पाययन्त्यः   शिशून्पयः।
सुश्रूषन्त्य पतीन्काश्चिदश्नन्त्योऽपास्य   भोजनम्।
लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्योऽन्या अंजन्त्य काश्च लोचने।
व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः   काश्चित्कृष्णान्तिकं  ययुः।

किन्तु यहाँ अखिल लोकाराध्य ही ‘भरत’ शब्द श्रवणकर सुध-बुध खो बैठते हैं। प्रियतम ही प्रेमी बन गए। कहीं पट गिरा, कहीं निषंग और धनुष-तीर भी गिर पड़ा। मानस भर में ऐसी देह-विस्मृति का एक मात्र यही उदाहरण है।

प्रिय से मिलने के लिए सर्वत्याग अपेक्षित भी तो है। व्यवधान रहते हुए सच्चा मिलन कैसे होगा? रसिक-जनों द्वारा तो पुष्पहार भी इसी भय से धारण नहीं किया जाता कि प्रिय से दूरी उपस्थित कर देगा। “हारो नारोपिता कण्ठे ममा विश्लेष भीषणा।” रसिकशेखर चार-चार वस्तुओं को धारण किए हुए हैं। कैसे मिले?

शकुन-शास्त्र वेत्ता कहते हैं कि हाथ से अस्त्र-शस्त्र गिरना अशुभ है। पराजय का सूचक है। लंकाकाण्ड में भी अशुभ के रूप में इसका उल्लेख हुआ है। “स्रवहिं आयुध हाथ ते।” यही एक ऐसा अवसर है, जब प्रभु के कर-कमलों से आयुध गिरा, और शास्त्रवेत्ताओं की बात भी झूठी न हुई। राघवेन्द्र की पराजय हुई, पर किसके सामने? लाड़ले भरत के समक्ष। इस पराजित पर सौ-सौ विजयों को निछावर किया जा सकता है। प्रेमपराजित कौसल-किशोर तो शिशुपन से ही भरत के सामने हारते आए हैं – हारकर प्रसन्न होते आए हैं। हारकर दान देते हैं। ब्राह्मणों से आशीर्वाद माँगते हैं कि ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि भरत के समक्ष हम सदा परास्त होते रहे।

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