धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
एक कहत भई हार रामजू की,
एक कहत भैया भरत जये।
प्रभु बकसत गज, बाजि, बसन, मनि,
जय धुनि गगन निसान हए।।
अहा! आयुधपात मानो उस आत्मसमर्पण की पूर्व सूचना है, जो आगे “भरत कहे सोइ किए भलाई” कहकर राघव करने वाले हैं।
किंवा रघुवीर के आयुध स्वयं ही चरण-धूलि में गिरकर उस दिव्यानन्द का अनुभव करना चाहते हैं। जिसका अनुभव “प्रभु पद पायेऊ पराग” में पड़े हुए श्री भरत कर रहे हैं। मानो वे सोचते हैं कि अवश्य ही इस मकरन्द में कोई विशिष्ट रस होगा। इसी से तो भक्ताग्रगण्य भूमि में पड़े हैं। हम लोग तो इससे वंचित ही रहे जा रहे हैं। अतः प्रभु की अधीरता का लाभ उठाकर वे भी चरणरज में लिपटने के लिए भूमि में गिर पड़ते हैं। अथवा भक्त-कुल-तिलक भरत का दैन्य देखकर धृष्टता का अनुभव करते हैं कि अहो! श्री भरत जैसे प्रेमी भूमि पर और हम सब प्रभु के अंग पर। अतः लज्जित होकर यत्रतत्र भूमि पर गिर पड़ते हैं।
किंवा “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्” तो प्रभु की प्रतिज्ञा ही है। श्री भरत भी यहाँ आकर चार वस्तुएँ विस्मृत हुए –
“बिसरे हरष (1), शोक (2), सुख (3), दुख (4) गन।”
अतः इधर भी चार वस्तुएँ विस्मृत हुईँ।
कहुँ पट (1) कहुँ निषङ्ग (2) धनु (3) तीरा(4)।
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