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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


अहा ! कितनी उत्कण्ठा है। सोचने लगे कहीं उस प्रेमी के साहचर्य में आनन्दमग्न हो यह मुझे विस्मृत न कर दें। तब मेरे प्राणप्रिय भरत का समाचार मुझे कैसे प्राप्त होगा। अतः आज्ञा देते हैं कि “समाचार लै तुम चलि आएहु।” श्री हनुमान पुलकित हो रहे हैं इस सौभाग्यमय सुअवसर की कल्पना से। “अहा ! आज मेरा कितना सौभाग्य है, जो मुझे सबसे पहले प्रेमी को ‘सु-दर्शन’ का सन्देश सुनाने का अवसर प्राप्त होगा।” भावमय कल्पना में विभोर होते हुए रसिकवर श्री अंजनीनन्दन नन्दिग्राम पहुँच गए। देखते हैं कि –

दो. – बैठे देखि कुसासन, जटा मुकुट कृस गात।
राम राम रघुपति जपत, स्रवत नयन जलजात।।

सजल जलद-सा श्याम वर्ण, कृश शरीर, आँखों से अनवरत अश्रुप्रवाह, मुख से ‘राम-राम’, ‘हा राम’ का भाव-भरा उच्चारण। उस तपःपूत प्रेममय भावनामूर्ति का दर्शन कर श्री हनुमान को हर्षातिरेक हो गया। प्रेम उमड़ पड़ा। दोनों नेत्र बरस पड़े-

देखत  हनूमान  अति हरषेउ।
पुलक गात लोचन जल बरषेउ।।

प्रेमी के इस प्रेम को देखकर विचारमग्न हो जाते हैं। कैसे भाव-रस-सागर है यह नवाम्बुद। चौदह वर्ष प्रतिक्षण अश्रुप्रवाह, चिन्तन, प्रजा-रक्षण किया है इस अधिसार-व्रती ने। हम लोगों में यह प्रेम, यह भाव, सेवा-परायणता कहाँ?

मन महँ बहुत भाँति सुख मानी।
बोलेउ  श्रवन  सुधा  सम बानी।।

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