धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भाव आह्लाद भरे शब्दों में प्रिय भक्त ने कहना प्रारम्भ किया –
जासु विरहँ सोचहुँ दिन राती।
रटहुँ निरंतर गुन गन पाँती।।
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता।
आयउ कुसल देव मुनि त्राता।।
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत।
सीता सहित अनुज प्रभु आवत।।
अहा! वह पियूषा वाणी कर्ण में प्रविष्ट होते ही श्री भरत आनन्दमग्न हो गए। अमृत से भी अधिक मधुर, चन्द्रमा से भी अधिक शीतल, वह वाणी श्री भरत के हृदय के समस्त दुःखों का हरण कर लेती है। पर श्री भरत उठते नहीं। बैठे ही बैठे पूछते हैं –
को तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए।।
आश्चर्य होता है कि इतना मंगलमय समाचार ले आने वाले को प्रणाम नहीं। स्वागत नहीं। श्री भरत की स्थिति तो उस समय बड़ी विलक्षण है। नेत्र बन्द हैं। आँसू बरस रहे हैं। उसी समय शब्द सुनाई पड़ता है – आनन्दमय, मंगलमय। किन्तु प्रेमी को प्रसन्नता के साथ सन्देह है कि कहीं मेरी व्याकुलता या भावना के कारण तो ऐसा नहीं सुनाई पड़ रहा है? पर हृदय कहता है – “कल्पना ही सही”, किन्तु नेत्र इस भय के मारे नहीं खोलते कि कहीँ सचमुच भावना न सिद्ध हो जाए। श्री हनुमान जी के शब्द सुनकर उन्हें यही भय होता है कि यह मेरी भावना ही है-
रामेति रामेति सदैव बुद्धया विचिन्त्य वाचा ब्रुवतीतमेव।
तस्यानुरूपं च कथां तदर्थामेवं प्रपश्यामि तथा श्रृणोमि।।
मनोरथः स्यादिति चिन्तयामि (वाल्मीकि 5/32/11-13)
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