धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
श्री भरत अनुभव करते हैं कि श्री हनुमान के समक्ष ऋणी हूँ। इस सन्देश के बदले में क्या दिया जा सकता है और स्नेह भरे शब्दों में केशरी किशोर से कहते हैं -
कपि तव दरस सकल दुख बीते।
मिले आजु मोहि राम पिरीते।।
बार बार बूझी कुसलाता।
तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता।।
एहि संदेस सरिस जग माहीं।
करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं।।
नाहिन तात उरिन मैं तोही।
अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।।
पूछते हैं प्रियतम प्रभु की मंगलमय कथा और श्री हनुमान के चरणों में प्रणाम करके ( हाँ कितना आश्चर्य – नियम तो यह है कि श्रोता वक्ता को प्रणाम करे, किन्तु मानो श्री भरत जैसा श्रोता पाकर वक्ता कृतकृत्य हो गया)। अतः दण्डवत करके प्रभु की विजय-कथा का वर्णन करते हैं –
तब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा।।
इसके पश्चात् ही दैन्यमूर्ति ने श्री हनुमान जी से लजाते हुए एक प्रश्न पूछा –
कहुँ कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमरहिं मोहि दास की नाईं।।
कैसा नम्रता भरा प्रश्न है। उनको जीवन में इससे बड़ा कोई सुख नहीं जान पड़ता कि प्रभु ने कभी दास रूप में उनका स्मरण कर लिया हो। श्री हनुमान तो भोले भाई भरत की इस सरल वाणी को सुनकर चरण पकड़ लेते हैं। अहा ! यह नम्रता! जिसका गुण स्वयं राघव गाते हैं –
निज दास ज्यौं रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर् यो।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर् यो।।
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सद् गुन सिंधु सो।।
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