धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
एक बहुत ही भावमय दोहा स्मरण आता है मुझे इस अवसर पर। कोई विरहिणी ब्रजांगना शयन-कक्ष में पड़ी सो रही है। स्वप्न में उसे ब्रजेन्द्र कुमार का दर्शन होता है और वे जागने लगते हैं – किन्तु भावमयी गोपी नेत्र नहीं खोलती चाहती। क्यों, क्या रूठी है? नहीं, नहीं – नेत्र खोलने में उसे भय लगता है। किस बात का?
सपने में सोईँ मिले सोवत लिया जगाय।
आँख न खोलूँ डरपती मति सपना होइ जाय।।
अहा ! कैसी मार्मिक व्यथा है “मति सपना होइ जाइ”। कहीं यह दर्शन स्वप्न न सिद्ध हो जाय? यही भावना इस समय हमारे प्रेममूर्ति की है। “मति सपना हो जाए।” नेत्र नहीं खोलते और आँखें मूँदे ही पूछते हैं –
को तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए।।
परीक्षा हो गई – सत्यता की। क्योंकि उत्तर मिला।
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना।।
दीनबंधु रघुपति कर किंकर।
इतना सुनना था कि दौड़कर हृदय से लगा लेते हैं –
सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर।।
दो अनन्य भक्तों का मिलन है। एक दूसरे के प्रति श्रद्धापूरित हृदय से मिलते हैं। दोनों के हृदय में प्रेम उमड़ रहा है। हृदय में न समा सका, तो नेत्र मार्ग से छलक पड़ा –
मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता।
नयन स्रवत जल पुलकित गाता।।
|