धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
प्रेम तो सिर का सौदा है।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ लै जाय।।
‘मेरे निकट न रहने में ही उनका सुख है’ – तो सहर्ष वह एक जीवन नहीं, अनन्त जन्मों तक उनसे पृथक् रहने को प्रस्तुत हो जायगा।
संयोग और वियोग दोनों ही परिस्थितियों में “तत्सुख-सुखित्व” की भावना ही प्रेमी का ध्येय है। फिर भी प्रेमियों ने तो संयोग की अपेक्षा वियोग को ही अधिक महत्व दिया है।
संगमविरहविकल्पे वरमपि विरहो न संगमस्तस्य।
वियोग को प्राधान्य देना भी सकारण ही है। संयोग में स्व-सुख की आकांक्षा न होते हुए भी हठात् सुख का उपभोग तो होता ही है। पर वियोग में तिल-तिल कर जलना, और प्रतिक्षण उनकी स्मृति स्व-सुख का लेश भी प्रविष्ट नहीं होने देती। वियोग में मनोभावों से ही प्रेम की यथार्थता की परीक्षा होती है। संयोग में यह पता लगाना कठिन है कि वह प्रियतम का प्रेमी है किंवा आनन्द का। दोनों इतने घुल-मिल जाते हैं कि बहुधा भ्रम वश मनुष्य (यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य श्रेष्ठ स्थिति का ही आरोप स्व में करता है) स्वयं को प्रेमी मानता हुआ भी केवल इच्छा और वासना का दास होता है। वियोग में वह प्रकट हुए बिना नहीं रह सकता। यदि वियोग में उनके साथ उठाये गये सुखों की ही स्मृति आती है, तो स्पष्ट है कि वह सुख का उपासक है। और यदि वहाँ “प्रियतम कैसे होंगे” इसकी स्मृति है, तो वह है ‘प्रेम’।
यशोदा मैया के दुःख का स्वरूप केवल यह नहीं कि उनका कन्हैया बिछुड़ गया। वे तो बार-बार व्यथित होकर कहती हैं –
को उठि प्रात कलेऊ दैहे।
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