धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
क्योंकि उनका कन्हैया संकोची है। दूसरे से तो कलेऊ माँगेगा नहीं। अपनी अभिरुचि भी दूसरों को बताने से रहा। तब जो कुछ मिलेगा, उसे ही खा लेगा। ‘हाय! वह भूखा रहेगा’, इस कल्पना से वे अधीर हो जाती हैं।
मेरो अलक लडैतो मोहन ह्वैहै करत संकोच।
यह है सच्चे स्नेही की भावना।
श्री भरत जीवन भर कानन में रहने को प्रस्तुत हैं – प्रभु से बहुत दूर। नरक से भी उन्हें हिचकिचाहट नहीं। बस केवल एक आकांक्षा है –
मिटहिं कुयोग राम फिरि आए।
“वे लौटकर श्री अवध में सुखपूर्वक निवास करें।” उनकी सारी साधना बस केवल इतने के लिए है। न तो उन्हें माता के कर्त्तव्यों का प्रायश्चित करना है, और न वियोग-व्यथा को दूर करने की इच्छा, बस केवल “तत्सुख सुखित्व” ही उनके जीवन का आदर्श है।
“तुम कहँ भरत कलंक यह सब कहँ उपदेश” कहकर भरद्वाज जी उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर चुके हैं। उन भरत की परीक्षा? कदापि नहीं। परीक्षा लेने की भावना का भ्रम इसीलिए उत्पन्न होता है कि महर्षि ने सिद्धियों के द्वारा सत्कार करने की चेष्टा की है। पर इसके लिए मैं उस प्रसंग को ध्यान से पढ़ने की प्रार्थना करूँगा। बात बहुत सरल और स्पष्ट है। आमन्त्रण मुनिराज ने दिया – और केवल कन्द, मूल, फल ही लाने की आज्ञा भी दी गई, पर इतने बड़े समाज के सत्कार योग्य फल आदि इतनी शीघ्रता से कैसे प्राप्त हों? और फिर अतिथि भी राजपुरुष, अतः उनके हृदय की चिन्ता को गोस्वामी जी ने स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है –
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता।।
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