धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
आतिथ्य-सत्कार में एक चन्दन-बनितादिक भोग की संगति से लोगों को कुछ कठिनाई का अनुभव होता है। परीक्षा मान लेने पर इससे सहज ही छुटकारा मिल जाता है। पर यहाँ यह समझ लेने पर कि सत्कार लौकिक वस्तुओं के प्रयोग द्वारा नहीं, सिद्धियों द्वारा किया गया है, परिस्थिति बदल जाती है। सत्कार स्वर्गीय पद्धति से है। सुर-सुरभी, सुर-तरु से भी इसी की पुष्टि होती है। स्वर्गीय मर्यादाएँ दूसरी ही हैं। अप्सराओं द्वारा सत्कार पुराणों से स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। महाभारत के अर्जुन अर्वशी संवाद में पृथ्वी और स्वर्ग की मर्यादाओं में भिन्नता प्रकट होती है। अतः सिद्धियों ने अपनी स्वर्गीय पद्धति से वस्तुएँ भेंट की हैं। पृथ्वी की मर्यादा के अनुसार पुरवासियों ने उसे स्वीकार नहीं किया, यह भी समझ लेना चाहिए।
श्री भरत ने समस्त वस्तुओं को ‘मुनि प्रभाऊ’ के रूप में देखा। वैराग्यनिधि के चित्त में न उन वस्तुओं के प्रति राग हुआ और न द्वेष। राग-द्वेष-हीन होकर भी उन्होंने उनका उपभोग नहीं किया। हाँ! इन वस्तुओं को देखकर उनकी दृष्टि मुनिराज की तपस्या पर ही गई। सच्चे सन्त की दृष्टि बुरी वस्तुओं में भी अच्छाई ढूँढ़ लेती है। व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार ही शिक्षा ग्रहण करता है। इन वस्तुओं के द्वारा भोग और तप दोनों में श्रद्धा सम्भव है।
स्पष्ट है विषयी इसको दूसरे रूप में लेगा – वह सोचेगा “अहो इतनी सुन्दर वस्तुएँ? यह तो उपभोग करने योग्य हैं।” पर वैराग्यवान सोचता है “अहो तपस्या का ही तो यह प्रभाव है, तब तो तप द्वारा ही श्रेयस की ही प्राप्ति करनी चाहिए।” श्री भरत तो इन दोनों से ही निराले हैं। उनकी दृष्टि न तो भोग पर ही है, और न तप न यश पर। वे तो अपने प्रियतम में ही रमे रहते हैं। उनका मन प्रभु के पाद पद्मों में निरन्तर मधुकर बनकर गुंजन किया करता है। रात्रि व्यतीत हुई और मुनि की आज्ञा का पालन भी हो गया। श्री भरत कैसे रहे, इसे कवि अपने रूपक में व्यक्त करने की चेष्टा करता है।
संपति चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निसि आश्रम पींजरा राखे भा भिनुसार।।
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