धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
कहा जाता है कि चकवा-चकई रात्रि को एक साथ नहीं रहते। रात्रि होते ही वे दोनों नदी के दो किनारों पर जा बैठते हैं। किन्तु किसी बालक को खेल सूझा और उसने दोनों को एक पिंजड़े में बन्द कर दिया, पर शरीर से निकट रहते हुए भी मानस रूप में दोनों को अलग रहना स्वाभाविक ही था। इसी प्रकार यहाँ श्री भरद्वाज की आज्ञानुसार उस दिव्य वैभव में भरत रात्रि भर अवश्य रहे, किन्तु मन से उन सबसे दूर थे। चेष्टा शब्द का प्रयोग भी मैंने जानबूझ कर किया है।
सच तो यह है कि श्री भरत के भाव और वैराग्य का व्यक्तिकरण करने के लिए कोई भी रूपक या उपमा सम्भव नहीं है। वे निरुपम पुरुष जो ठहरे। इस रूपक और श्री भरत जी की भावना में अन्तर है। चकवा चकई से पृथक् रहता है, किन्तु विवश होकर और उसमें वियोग की व्याकुलता बनी रहती है। अलग रहकर भी मिलने की प्रबल उत्कंठा उनके हृदय में होती है। किन्तु वहाँ न तो श्री भरत सम्पत्ति के प्रेमी हैं और न ही उनका बिलगाव बाध्यता से है, और न मिलने की उत्कंठा। फिर भी कवि उपमा द्वारा कुछ समझाने का प्रयास करता है।
उनके भावों को सफलतापूर्वक व्यक्त न करके भी उसे प्रयास से किंचित् सन्तोष मिलता है। यहाँ असफलता ही सफलता है। सफलता स्वीकार करना श्री भरत-चरित्र की अनभिज्ञता सूचित करता है। इसलिए कविकुल चूड़ामणि ने अपनी असफलता द्वारा ही भरत भाव समझने का प्रयास किया है।
प्रेम-पथ का वह अविचल पथिक चला जा रहा है अपने प्रियतम की निवास भूमि की ओर। क्षीणकाय पर मुख पर अद्भुत कान्ति जिसका वर्ण श्याम सरोज-सा है, जिसके रतनारे नयन प्रेम-जल से भरे हुए हैं, वह प्रेम-मूर्ति चला जा रहा है ‘राम-सखा’ के कर में कर दिये।
किसी मार्ग-दर्शक ने कहा, यही वट-वृक्ष है जहाँ ग्रामवासी स्त्री-पुरुषों ने प्रभु से एक क्षण के लिए विश्राम की प्रार्थना की थी। धन्य था उनका प्रेम। कुश-पत्र और पुष्पों से उन लोगों ने आसन बनाया था। और घट में शीतल जल लिए जब वे प्रभु के समक्ष खड़े हो गये, तो भक्तवत्सल भला उनकी बात कैसे टालते। फिर प्रिया जी श्रमित भी हो गई थीं। बैठ गये इस वृक्ष की सुरम्य छाया में तीनों। और तब उन नागर ग्रामीणों ने बड़े ही नम्र और प्रेम भरे शब्दों में कहा, “प्रभु! क्या आप अभी चले जायेंगे? ना ना अब रात्रि यहीं व्यतीत करिये।”
|