धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
देखि दसा सुर बरसहिं फूला।
भइ मृदु महि मगु मंगल मूला।।
दो. – किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहिं जात।।
मुक्ति तो श्री भरतागमन से सभी के लिए सुलभ हो गई। न उसके लिए श्रवण, मनन और चिन्तन की अपेक्षा थी और न ध्यान, धारणा, प्रत्याहार, समाधि की। अधिकारी-अनाधिकारी का तो प्रश्न ही शेष न रहा।
जड़ चेतन जग जीव घनेरे। जिन चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।।
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू।।
“भरत दरस मेटा भव रोगू” द्वारा एक बड़ी ही सैद्धान्तिक वस्तु की ओर संकेत किया गया है। वास्तव में तो जीव मुक्त ही हैं, किन्तु अविद्या माया के द्वारा वह अपने आप को बद्ध मान लेता है कि उसे ‘स्व-स्वरूप’ की विस्मृति हो जाती है।
माया बस स्वरूप बिसरायो। तेहि कारन नाना दुख पायो।।
तै निज करम डोरि दृढ़ कीन्हीं। अपने करहिं गाँठ दइ लीन्हीं।।
समाधि द्वारा इसी भ्रम-निवारण का प्रयत्न किया जाता है। स्थिर जल में ही जैसे अपना प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है, चंचल जल में नहीं। उसी प्रकार समाहित मन में ही ‘स्व-स्वरूप’ के साक्षात्कार (साक्षात्कार का अभिप्राय अन्य के निषेध के रूप से ही है) की क्षमता जाती है। पर वह समाधि हो कैसे? जीव अनेक रोगों से ग्रस्त हो रहा है। वे रोग ‘मानस’ और मनहित करना है। काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, कुटिलता आदि रोगों ने उसे चंचल बना दिया है।
एक ब्याधि बस नर मरई ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं सन्तन जीव कहँ सो किमि लहइ समाधि।।
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