धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
एक देखि बट छाँह भल डासि मृदुल कुस पात।
कहहिं गवाइय छिनक श्रम गबनब अबहिं के प्रात।।
सुना इस मधुर कहानी को और बरस पड़ी आँखें, लिपट गये जाकर उस वट-वृक्ष से। “सखे! तुम धन्य हो। प्रभु तुम्हारे निकट आये। तुम्हारी सुरम्य छाया में विराजे। तुमने पत्तों का आसन दिया और पत्तों से विजन कर उनके श्रम का हरण किया। प्रभु तुम्हारे तन से टिक गये। उनके सुकोमल श्री अंग का सान्निध्य तुम्हें मिला, मुझ अभागे के स्पर्श से तुम रूठ तो नहीं गये। हाँ! सचमुच मैं कितना अभागा हूँ। हमारे ही कारण तो उन्हें बन आना पड़ा। कौन कहता है कि तुम जड़ हो? नहीं, नहीं तुम्हीं चेतन हो, प्रभु के सच्चे अनुरागी हो – मुझे भी अनुराग का दान दे दो न!” इस प्रकार अनुराग भरे शब्दों में उनसे बात करने लगते हैं। गोस्वामी ने उसे थोड़े से शब्दों में व्यक्त करने की चेष्टा की है –
लषन राम सिय पंथ कहानी। पूँछहि सखहि कहत मृदु बानी।।
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकें।।
दुखी व्यक्ति हीन हो जाता है। रावण के अत्याचार से आकुल देवता गण स्वार्थान्ध हो रहे थे। सभी चाहते थे “राहिं भहि भेंट न होई” इसके लिए उन्होंने भी प्रयत्न किये। पृथ्वी कठोर बनकर उनके पथ को कठिन बना देना चाहती थी। सूर्य किरणों से सन्तप्त कर उन्हें यात्रा से विरत करना चाहता था। पर सच्चे प्रेमी इन कठिनाइयों से कहाँ घबराते हैं। पैरों में फफोले पड़ गये पर उस प्रेमब्रती के मुख से आह तक नहीं निकली। लज्जा से पृथ्वी पानी-पानी हो गई। सूर्य ने बादलों की ओट में अपने को छिपा लिया। वे सोचने लगे – “हाय! हम लोगों ने यह क्या किया? प्रेम-मूर्ति के प्रति हमारा यह व्यवहार जानकर प्रभु को कितना क्षोभ होगा?” और तब वे अतीव कोमल बनकर अपनी भूलों का प्रायश्चित करने लगे। श्री भरत का सत्कार करने के लिए जड़-चेतन में होड़-सी लग गई। स्वार्थी देवता भी श्री भरत की प्रेममयी दिव्य स्थिति देख भावविभोग हो उठे। वे कोमल पृथ्वी को पुष्पों द्वारा आच्छादित कर उसे और भी मृदु बना देना चाहते हैं। परिणामस्वरूप राघवेन्द्र के स्वागत से भी बढ़कर स्वागत हुआ ‘राम-अनुज’ का –
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