धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
वत्स! प्रभु बड़े ही क्षमाशील हैं पर भक्तापराध वे भी नहीं सह सकते। अम्बरीष और दुर्वासा का इतिहास तुमसे छिपा नहीं। फिर संभवतः तुम्हें यह ज्ञात नहीं कि श्री भरत और प्रभु कौसलेन्द्र का क्या सम्बन्ध है? लोकदृष्टि से तो भरत उनके भक्त हैं, पर उन्हें प्रभु अपना भक्त ही नहीं, आराध्य भी मानते हैं। जानते हो प्रभु जिस नाम का जप करते हैं, वह है भरत।
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही।।
अपने इष्ट का अपमान तो साधारण व्यक्ति भी नहीं सह पाता। तब फिर भला अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नायक कैसे क्षमा करेंगे। अच्छा जाने दो आराध्य न सही भक्त ही मानो। पर यह भी तुम्हें ज्ञात है कि उन्हें सेवक कितना प्रिय है? विश्व के लिए सम होते हुए भी वे सेवक के लिए विषय बन जाते हैं। वास्तव में तो भक्तों का प्रेम ही उन्हें अवतार ग्रहण करने के लिए बाध्य करता है। जिनके लिए वे अपना स्वरूप भी परिवर्तित कर देते हैं, उन भक्तों से विरोध करने वाले की क्या स्थिति होगी? कल्पना तो करो। मैं जानता हूँ तुम्हें यह भय क्यों हो रहा है? तुम सोचते हो श्री भरत प्रभु को वन से लौटा से आवेंगे। रावण वध न होगा। और देवता बन्दी बने रहेंगे। पर यह भ्रम श्री भरत का स्वभाव न जानने के कारण ही है। वे तो –
राम भगति परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल।।
तुम क्या सोचते हो कि भक्त स्वार्थी होता है? श्री भरत अपनी वियोग-व्यथा को दूर करने के लिए राम को लौटाना चाहते हैं? यह सर्वथा भ्रामक धारणा है। भक्त अपने लिए कुछ नहीं सोचता, वह तो सदा ‘परहित निरत’ रहता है। श्री भरत ने समस्त पुरवासियों को शोक-सागर में निमग्न देखा – सभी विषम वियोग व्यथा से संत्रस्त थे। उनकी रक्षा करना उनका कर्त्तव्य था, क्योंकि वे सन्त हैं। उन्होंने राम के पास जाने का निर्णय कर लोगों की मानसपीड़ा का नाश कर दिया। प्रभु को वे लौटाना चाहते हैं केवल इसीलिए कि ‘मिटइ कुयोग राम फिरि आए’ – पर वे दुराग्रही नहीं है।
|